Sunday, 22 December 2024

भेद-भाव पर कुण्डलिया

 

अपनों से ही कर रहा, भेद-भाव बर्ताव।
गढ़े नित्य प्रतिमान नव, बदले रोज़ स्वभाव॥
बदले रोज़ स्वभाव, क्रूरता बढ़ती जाती।
स्नेह प्रेम सौहार्द, भावना घटती जाती॥
मोह-भ्रमित इंसान, बँधा स्वारथ सपनों से।
करे तुच्छ व्यवहार, तभी देखो अपनों से॥1॥

ईश्वर ने तो एक-सा, रचा यहाँ इंसान।
भेद-भाव कर के मनुज, रचता नये विधान॥
रचता नये विधान, बेल विष की ख़ुद बोये।
जाति-पाति में बाँट, स्वयं की निजता खोये॥
भूला मानव-धर्म, मनुज मानवता तज कर।
मानव का यह रूप, चकित हो देखे ईश्वर॥2॥

अपना सबको जानना, सब प्रभु की संतान।
समदर्शी रहना सदा, इसमें ही है मान॥
इसमें ही है मान, इसी में है मर्यादा ।
सब हैं एक समान, न कोई कम है ज्यादा॥
भेद-भाव मत साथ, किसी के भी अब करना।
सदा बढ़ाओ हाथ, निर्बलों के हित अपना॥3॥

कुन्तल श्रीवास्तव.
डोंबिवली, महाराष्ट्र.

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