Sunday 31 October 2021

जब सृजन आयाम चाहे

 



लेखनी उत्कंठिता हो, जब सृजन आयाम चाहे।
भावना संपृक्त होकर, सृष्टि-हित निष्काम चाहे।

नाप लेती है धरा से,
दूरियाँ अम्बर तलक की।
दृष्टि जिसकी देख लेती,
सूक्ष्मता अंतर तलक की।

आन्तरिक यात्रा करे यह, पल नहीं विश्राम चाहे।
लेखनी उत्कंठिता हो, जब सृजन आयाम चाहे।

दुःख-पीड़ाएं घनेरी,
मार्ग कर अवरुद्ध देतीं।
तप्त मन की आह में जब,
वेदनाएँ श्वास लेतीं।

ढूँढती हल प्राण-मन से, फल सुफल अभिराम चाहे।
लेखनी उत्कंठिता हो, जब सृजन आयाम चाहे।

युद्ध मन-मस्तिष्क का भी,
जीतना मन्तव्य जिसका।
पार कर सोपान अगणित,
लोकहित कर्तव्य जिसका।

ध्येय-पथ का अनुसरण जो, अनवरत अविराम चाहे।
लेखनी उत्कंठिता हो, जब सृजन आयाम चाहे।

डॉ. राजकुमारी वर्मा

Saturday 23 October 2021

वेदना

 



वेदना कल्मष हृदय के दह रही है।
शब्द बन सारी कथाएँ कह रही है॥

देख औरों की व्यथा जब रो पड़े दिल,
वेदना के पुष्प जाते हैं तभी खिल,
शैल हिम-से जब पिघलते दर्द के हैं
आसमां रोता धरा जाती यहाँ हिल,
यह हृदय पीड़ा नदी-सी बह रही है।
शब्द बन सारी कथाएँ कह रही है॥1॥

वेदना-जल से हुआ हिय स्वच्छ-दर्पण,
देखता निज रूप कर सर्वस्व अर्पण,
आज करुणा से कलित प्रभु! इस हृदय की
भावनाएँ कर रहा मानव समर्पण,
सर्जना संवेदना कर गह रही है।
शब्द बन सारी कथाएँ कह रही है॥

व्याप्त पीड़ा इस जगत में हो हृदय की,
चेतना जब सुर जगाती लय-विलय की,
वेदनाएँ दूर हों निःस्वार्थ मन की
हो मनुज पर जब कृपा करुणा-निलय की,
दर्द कितना ज़िन्दगी यह सह रही है।
शब्द बन सारी कथाएँ कह रही है॥

कुन्तल श्रीवास्तव.
डोंबिवली, महाराष्ट्र.

Sunday 17 October 2021

पूजा/अर्चना/इबादत




पत्थर को पूजे मगर, दुत्कारे इन्सान।
कैसे ऐसे जीव का, भला करे भगवान।1।

पाषाणों को पूजती, कैसी है सन्तान।
मात-पिता की साधना, भूल गया नादान।2।

पूजा सारी व्यर्थ है, दुखी अगर माँ -बाप।
इससे बढ़कर जगत में, नहीं दूसरा पाप।3।

सच्ची पूजा का नहीं, समझा कोई अर्थ।
कर्म बिना इस जगत में, अर्थ सदा है व्यर्थ।4।

मन से जो पूजा करे, मिल जाएँ भगवान।
पत्थर के भगवान में, आ जाते हैं प्रान।5।

झूठी पूजा से प्रकट , कैसे हों भगवान।
धन लोलुप तो माँगता, धन का बस वरदान।6।

चाहे पूजो राम तुम, चाहे पूजो श्याम।
मन में जब तक छल-कपट, व्यर्थ ईश का नाम।7।

सुशील सरना  

Sunday 10 October 2021

दशहरा




दश आनन मार दिया रण में। सब गर्व मिला वसुधा कण में।।
विजयादशमी जय पर्व महा। जग ने जय राम उचार कहा।।

दस पाप हरे तन से मन से । सत धर्म जयी बरसा घन से।।
वनवास समापन की घड़ियाँ। जननी बुन हार रही कलियाँ ।।

रघुवीर पधार रहे पुर में। जयकार किया सबने सुर में।।
नर - नार मनोरथ पूर रहे। नयनों ठहरा दुख भार बहे।।

गगरी जल की सिर पे धर के। पथ फूल बिखेर रहीं सर के।।
जननी धरि धीर खड़ी मग में। दुख रोकर आज पड़ा पग में।।

सुख चौदह वर्ष बिता वन में। घर पाकर फूल रहा मन में।।
जननी सबका मुख चूम रही। कपि केवट भाग्य न जात कही।।

धर रूप अनूप खड़े सुर भी। लखि राम रहे गज कुक्कुर भी।।
सरयू हरषी वसुधा सरसी। सुख से भर के अखियाँ बरसी।।

जय राम रमापति पाप हरो। भव प्रीति भरी मन दूर करो।।
शरणागत के सिर हाथ धरो। मन में प्रभु भक्ति -विराग भरो।।
डॉ. मदन मोहन शर्मा

Sunday 3 October 2021

मर्म क्या है

 


क्रोध गुण है क्रोध अवगुण, जानिए क्या मर्म है
हो सुनिश्चित क्रोध-सीमा, तो यही सत्कर्म है
नवसृजनकर्ता कभी, विध्वंसकारी क्रोध ये
बुद्धिहर्ता क्रोध निश्चित, युद्ध में यह धर्म है

क्रोध दुर्वासा कभी तो, क्रोध भृगुपति नाम था
क्रोध में शिव ने किया जब,भस्म मनसिज काम था
क्रोध में घननाद तो सौमित्र थे प्रतिशोध में
प्रार्थना निष्फल हुई तब, राम बोले क्रोध में
भय बिना है प्रीति मुश्किल जलधि को क्या शर्म है
क्रोध गुण है क्रोध अवगुण, जानिए क्या मर्म है

द्रोपदी के कच खुले, यह युद्ध का आह्वान था
पांडवों के आत्मबल का, शक्ति पुनरुत्थान था
भीष्म सन्मुख बाण थे, गतिहीन अर्जुन के वहाँ
कृष्ण क्रोधित हो उठे, पहिया उठाया था तहाँ
भीष्म बोले नाथ स्वागत , धन्य मेरा चर्म है
क्रोध गुण है क्रोध अवगुण, जानिए क्या मर्म है

क्रोध है उद्विग्नता पर, क्रोध क्षमता-सार है
क्रोध उत्तम अस्त्र है, इस पर अगर अधिकार है
क्रोध प्रहरी क्रोध डाकू, क्रोध को पहचानिए
क्रोध आना क्रोध लाना, हैं पृथक कृत जानिए
मीत वैरी क्रोध है, हंता यही यह वर्म है
क्रोध गुण है क्रोध अवगुण, जानिए क्या मर्म है

सरदार सूरजपाल सिंह, कुरुक्षेत्र।
1.भृगुपति-परशुराम
2.मनसिज- मन में उठने वाली वासना 2. कामदेव; पुष्यधन्वा; रतिपति।
3.घननाद-मेघनाथ, इंद्रजीत
4.कच- केश
5.वर्म -कवच, बख़्तर।

रीति निभाने आये राम - गीत

  त्रेता युग में सूर्य वंश में, रीति निभाने आये राम। निष्ठुर मन में जागे करुणा, भाव जगाने आये राम।। राम नाम के उच्चारण से, शीतल जल ...