Sunday 27 November 2022

मारो चौका-छक्का - गीत

 

जीवन की गाड़ी को कोई, आकर देगा धक्का,
नहीं किसी के इंतिज़ार में, बैठो भोला कक्का।

जब तक हाथ-पांव चलता है, रुपया-पैसा जोड़ो,
बेटा-बेटी बसे शहर में, उनकी आशा छोड़ो।
जाम न होने देना कोई, निज गाड़ी का चक्का,
नहीं किसी के इंतिज़ार में, बैठो भोला कक्का।

एक पिता का हाल बताऊं, खटिया पर था लेटा,
डांट रहा था किसी बात पर, उसको लंपट बेटा।
कुछ कहते बन नहीं रहा था, मैं था हक्का-बक्का,
नहीं किसी के इंतिज़ार में, बैठो भोला कक्का।

शौक करो कुछ अपने पूरे, गाना-वाना गाओ,
नहीं ढोल तो थाली-लोटा, कुछ तो आज बजाओ।
सुबह उठो, कुछ खेलो-कूदो, मारो चौका-छक्का,
नहीं किसी के इंतिज़ार में, बैठो भोला कक्का।

नहीं बुढ़ापे को तुम कोसो, मत बीमारी पालो,
आने वाले हर संकट को, साहस से तुम टालो।
खेतों में अब फसल उगाओ, ज्वार, बाजरा, मक्का,
नहीं किसी के इंतिज़ार में, बैठो भोला कक्का।

*** राजकुमार धर द्विवेदी

Sunday 20 November 2022

मन के मीत - गीत

 


दिल के सच्चे मन के अच्छे, मेरे मन के मीत।
दिल से मुझे चाहते हो तुम, होने लगा प्रतीत।।

नवल प्रेम रस फूट पड़ा है, जबसे नैना चार।
प्रिय से दूर रहो अब मत तुम, करता हृदय पुकार।।
मन वीणा सम झंकृत होकर, बजा रहा संगीत।

स्वप्नों का संसार लिए हूँ, प्रीति रीति का ज्ञान।
जग-जीवन का भार लिए हूँ, पथ की है पहचान।।
सफर हमारा कट जायेगा, गाकर मधुमय गीत।

फूलों की चाहत सबको है, नहीं शूल से बैर।
मंजिल पाने को जब चलते, कंटक चुभते पैर।।
हम सुख-दुख के साथी होंगे, हार मिले या जीत।
दिल के सच्चे मन के अच्छे, मेरे मन के मीत।
*********************************

ठा. सुभाष सिंह, कटनी, म. प्र.

Sunday 13 November 2022

चाहत - एक मुक्तक

 

भारत माता की चाहत है, अब कुछ ऐसे बालक हों।
धर्म-कर्म को हृदय बसायें, प्रण के जो प्रतिपालक हों।।
उत्साही बलवान रहें जो, माता के सब कष्ट हरें।
परशुराम श्रीराम भीम हों, कुछ अर्जुन उद्दालक हों।।

*** विश्वजीत शर्मा 'सागर'

Sunday 6 November 2022

मेरी हड्डियाँ बचीं - एक ग़ज़ल

 



ग़ुज़र चुका जो कल यहाँ वही कहानियाँ बचीं
ज़बीं पे अनुभवों की अब लिखी नुमाइयाँ बचीं

थी ख्वाहिशें बिता सकूँ कुछेक पल सुकूँ भरे
न ही जिए न मर सके नफ़स की बेड़ियाँ बचीं

जो भी दिया है ज़ीस्त ने मैं जा रहा हूँ छोड़ कर
निभा रही हैं साथ अब भी मेरी हड्डियाँ बचीं

न फिक़्र अब कोई यहाँ न तो किसी से है ग़िला
अमूल्य तज़्रुमों की देन आज झुर्रियाँ बचीं

छड़ी सी संग संग जो मेरे चली सदैव हैं
ख़िरद की रहबरी को बस यही तज़ल्लियाँ बचीं

सदाकतों की खोज में ही चल रहे थे ये क़दम
सवाल हल न हो सके अजब पहेलियाँ बचीं

है ज़िन्दगी से प्यार तो जहां से सारे प्यार कर
यही सबक मिला यहाँ यही रसाइयाँ बचीं
🌸
कुन्तल श्रीवास्तव
(शब्दार्थ : ज़बीं- ललाट/मस्तक, नफ़स- श्वाँस, ज़ीस्त- जीवन, ग़िला- शिकायत, तज़्रुमों- तज़ुर्बों/अनुभवों, ख़िरद- मेधा/ज्ञान, रहबरी- दिशानिर्देश/साथ, तज़ल्लियाँ- प्रकाश-पुंज/ईश्वरीय नूर, सदाक़तों- सच्चाइयों/सत्य, सबक- शिक्षा/पाठ, रसाइयाँ- कौशल)

रीति निभाने आये राम - गीत

  त्रेता युग में सूर्य वंश में, रीति निभाने आये राम। निष्ठुर मन में जागे करुणा, भाव जगाने आये राम।। राम नाम के उच्चारण से, शीतल जल ...