Sunday 27 December 2020
विगत वर्ष
Sunday 20 December 2020
इन्द्रवज्रा समपाद वार्णिक वृत्त
Sunday 13 December 2020
कागज़ काले करना
Sunday 6 December 2020
नैन पथरा गये
Sunday 29 November 2020
धरा हुई है लाल क्रोध से
Sunday 22 November 2020
सूर्य पर दोहे
Sunday 15 November 2020
दीपोत्सव
दीपोत्सव त्योहार है, मना रहे सब लोग।
लक्ष्मी पूजन कर सभी, खाते छप्पन भोग।।
लाखों दीपक जल रहे, देखो बनी कतार।
चमचम गलियाँ कर रही, कहीं नहीं अँधियार।।
आतिशबाजी हो रही, बच्चे आत्मविभोर।
दादाजी यों कह रहे, बंद करो यह शोर।।
बाजारों में रौनकें, सजे पड़े सब मॉल।
माता पूजन के लिए, सजा रही है थाल।।
नये वसन सब पहन कर, खुशी मनाते लोग।
बार-बार आता रहे, ऐसा सुखद सुयोग।।
जगमग झोंपड़ियाँ करें, श्रेष्ठ यही त्योहार।
धनपतियों का आज ही, बरसा इन पर प्यार।
आपस में सब बाँटते, भिन्न भिन्न उपहार।
सामाजिकता है बड़ी, बढ़ता इससे प्यार।।
*** मुरारि पचलंगिया ***
Sunday 8 November 2020
नारी
Sunday 1 November 2020
तीरथ करूँ हज़ार
छोड़ न पाऊँ मोह गठरिया,
तीरथ करूँ हज़ार।
रास न आये बोझिल बंधन,
व्यर्थ लगे शृंगार।
मन से मन का मेल न प्रीतम,
नहीं चातकी प्यास।
अगन लगाती चंद्र कौमुदी,
साँझ करे उपहास।
तुम्ही बताओ भगवन मेरे, भटक रही दिन रात।
कहाँ मिलोगे राम हमारे, पलक बिछाये द्वार।
छोड़ न पाऊँ मोह गठरिया,
तीरथ करूँ हज़ार।
हंस नहीं मैं मानस स्वामी,
नीर न क्षीर विवेक।
मूढ़ मना तृष्णा में फँस के,
कुंदन बने न नेक।
तपा रही अर्पण में काया, नीति रीति के काज।
नेहिल नइया पार लगाकर, दे दो जीवन सार।
छोड़ न पाऊँ मोह गठरिया,
तीरथ करूँ हज़ार।
मन उपवन में तुम्हें बसा लूँ,
राग नहीं अनुराग।
अर्थ न स्वारथ चाहत अपनी,
चूनर लगे न दाग।
प्रेम रंग में रच बस जाऊँ, और नहीं अवदान।
तृषित नयन को दे दो दर्शन, जाऊँ मैं बलिहार।
छोड़ न पाऊँ मोह गठरिया,
तीरथ करूँ हज़ार।
रास न आये बोझिल बंधन,
व्यर्थ लगे शृंगार।
*** डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी ***
Sunday 25 October 2020
दशहरा
अभी अभी
एक सामूहिक कार्यक्रम में
रावण को जलवा कर आया था
तभी मार्ग के घुप अंधेरे में
अट्टहास करते रावण को पाया था।
न जाने कहाँ से आ टपका मरदूद
वही दस शीश
वही भुजाएँ बीस
चेहरों पर जलाए जाने की
न कोई शर्म न कोई लज्जा मौजूद।
बेशर्मों की तरह खिखिया रहा था
राक्षस राक्षसों की तरह चिंचिया रहा था |
अरे अरे, ये क्या
टूट टूट उसके शीश अपने आप
बढ़ते गए, निकलते गए
रक्तबीज की तरह,
धीरे धीरे अनगिनत शीश
अनगिनत भुजाएँ
बढ़ा रहा वह पापी
अपनी देह को कर विग्रह।
और उसने
अपने आगोश में
समेट लिया पूरा विश्व
सब तरफ रावण ही रावण दिखने लगे
एक अकेला राम
किसी एक कोने में
सिकुड़ा से
पड़ा देखता रहा यह करतब,
कलयुगी जनता को
सूनी सूनी आंखों से
निहारता रहा वो अब तब।
हे राम
अब क्या करूँ
कहाँ से लाऊँ इतने राम
जो करें रावण का काम तमाम
अब तो पृथ्वी पर
राम की खेती ही बंद हो गयी
बस रावण ही उग रहे हैं
कौवे खेतों को चुग रहे है।
*** सुरेश चौधरी ***
Sunday 18 October 2020
आपदा पर दोहे
विपदा की आहट कहाँ, देती पूर्वाभास।
जीव भ्रमित बेबस दिखे, कालचक्र का वास॥
जटिल आपदा-काल ये, सहसा मारे दंश।
अजब घनेरा ढाहता, घोर दुखों का अंश॥
बुद्धि-ज्ञान अंधा हुआँ, खोया मन का चैन।
तारे दिन में दिख रहे, विपदा काली-रैन॥
अंतस भेदन हो रहा, आफत का हो अंत।
राह बड़ी दुष्कर हुई, जिह्वा काटे दंत॥
मुख में बंदी हो गए, मीठे-मीठे बोल।
हाथों की मुट्ठी बँधी, आँख-फटी मन-खोल॥
विकट समस्या आ पड़ी, त्वरित कहाँ उपचार।
धीरे-धीरे उतरता, मानस संचित खार॥
दाँतों में उँगली दबी, हाथ मले बेचैन।
ईश्वर कुछ तो कीजिए, त्राहिमाम के बैन॥
*** सुधा अहलूवालिया ***
Sunday 11 October 2020
खेल-खेल में
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सरसी छंद
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[1]
खेल-खेल में कर देते हैं, बच्चे घर का काम।
मिल जाता है मात-पिता को, भी थोड़ा आराम।।
मेल-जोल से हो जाता है, यह घर सुख का धाम।
दुख-सुख में सब साथ खड़े हों, संकट हटें तमाम।।
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[2]
खेल-खेल में बच्चे सीखें, कम्प्यूटर भी आज।
वृद्धों को तो मुश्किल लगता, करना इस पर काज।।
बच्चे सिखा रहे हैं उनको, इस पर करना काम।
खेल-कूद की यही उम्र है, करें नहीं विश्राम।।
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[3]
[मुक्तक]
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खेल-खेल में करें खिलाड़ी, दुनिया भर में नाम,
मिल जाती है धन-दौलत भी, अच्छा है यह काम,
तन-मन हो जाता ताकतवर, यदि कर लें अभ्यास,
अच्छा भोजन बहुत ज़रूरी, खाएँ फल-बादाम।।
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[4]
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खेल-खेल में हो जाता है, कभी किसी से प्यार,
बिना विचारे मन कर लेता, है सब कुछ स्वीकार,
नई जवानी में मत लाँघो, मर्यादा की रेख,
कदम बढ़ाओ सोच-समझ कर, क्षमा नहीं इस बार।।
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रीता ठाकुर
अमेरिका
Monday 5 October 2020
भरोसा हार जाता है
विजय झूठे की हो जाती है सच्चा हार जाता है
यहीं तो व्यक्ति का सच पर भरोसा हार जाता है
शिकारी जब जगा देता है मन में भूख दानों की
कपट के जाल में फँसकर परिन्दा हार जाता है
जिसे विश्वास होता है कि सच का पक्षधर है वो
अदालत में वही अक्सर मुक़दमा हार जाता है
ये क़ुदरत दम्भ सबका तोड़ देती है इसी कारण
ग्रहण के दिन उजाले का फरिश्ता हार जाता है
न देखा है कभी भी छद्म ज्यादा देर तक टिकते
चमक सूरज की पड़ते ही कुहासा हार जाता है
ग़ज़ल हर दिल लुभाए सोच है 'अनमोल' की इतनी
अनेकों बार उसका ये इरादा हार जाता है
Sunday 27 September 2020
साँझ सुरमई - एक गीत
Sunday 20 September 2020
आदमी
Sunday 13 September 2020
निर्धन
उन्नत मन-शक्तिअव्यक्त अभिव्यक्तिसमय क्षुब्ध, व्यथित तन, शांत-मनप्रतिदिन तिमिरांत रात्रि अवसान गहन।भानु उदय पर मन चपल धुम्रांत विव्हल।अस्त-ध्वस्त-त्रस्तकाल के कपाल पर पस्त।दैनन्दिनी मात्र रोटी व श्रम जीविकोपार्जन का क्रम आक्रान्तफिर भी शांतसंसार सागर में लहरों के हवालेभाग्य विधाता अविधाता आँखें अश्रुपूरितह्रदय फिर भी पाषाण सा दृढ़धैर्य और हिम्मत की प्रतिमूर्तिकरुणा और दया की मूर्तिअपूर्ण क्षतिपूर्ति।ग़रीबी एक अभिशाप वस्त्र तार-तार आवास विहीन लाचार।भूख से पेबस्त अस्त ध्वस्त त्रस्त।एक त्रासदी कर अन्तस दृष्टिपात कर स्व-लक्ष्य सफल। जिजीविषा क्षरित पल पल प्रतिपल।यह दृश्य आम नहीं खास हैभारत में गरीब और देश में विकास है। *** सुरेश चौधरी ***
Sunday 6 September 2020
ये फूल
इन फूलों को देखकर
अकारण ही मन मुस्काए।
न जाने
किस की याद आये।
तब,यहाँ
गुनगुनाती थी चिड़ियाँ।
तितलियाँ पास आकर पूछती थीं,
क्यों मन ही मन शरमाये।
उलझी-उलझी सी डालियाँ,
मानो गलबहियाँ डाले,
फूलों की ओट में छुप जायें।
हवाओं का रुख भी
अजीब हुआ करता था,
फूलों संग लाड़ करती
शरारती-सी
महक-महक जायें।
खिली-खिली-सी धूप,
बादलों संग करती अठखेलियाँ,
न जाने क्या-क्या कह जाये।
झरते फूलों को
अंजुरि में समेट
मन बहक-बहक जाये।
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*** कविता सूद ***
Sunday 30 August 2020
क़तआत
कब तक ये चलेगा ऐ ख़ुदा! दौरे क़यामत
कैसे कोई समझेगा भला तौरे क़यामत
इन्साँ की वहशतों ने ये अंजाम दिया है
बन जाएँ न हम सब कहीं अब कौरे क़यामत
ये संक्रामक रोग न जाने कौन जहाँ से आया है
शायद मनु के दुष्कर्मों ने आदर सहित बुलाया है
अब क्यों हाहाकार मचा है, क्यों है चीख पुकार मची
मानव के आदर्शों को तो हमने ताक बिठाया है
ये करो दुआ के हो फैसला अब जान छोड़ दे ये वबा
ऐ मेरे ख़ुदा, ऐ मेरे ख़ुदा है नसीब में मेरे क्या बदा
मुझे बख़्श दे मेरे पारसा ये मेरी समझ से परे हुआ
मुझे मुआफ़ कर दे मेरे ख़ुदा के ईमान से था मैं गिर गया
महामारी का मौसम है मगर रोना नहीं साथी
रखो बस सावधानी धैर्य तुम खोना नहीं साथी
वही जो सोचता है वो सदा होता चला आया
इस हाहाकार से डर से तो कुछ होना नहीं साथी
*** यशपाल सिंह कपूर, दिल्ली ***
Sunday 23 August 2020
ओ पलाश
जब उजड़ा फूलों का मेला।
ओ पलाश! तू खिला अकेला।।
शीतल मंद समीर चली तो, जल-थल क्या नभ भी बौराये,
शाख़ों के श्रृंगों पर चंचल, कुसुम-कली भंवरें इतराये,
जब गरमाने लगा पवन तो प्रखर-ताप लू
तूने झेला।
ओ पलाश! तू खिला अकेला।।
पाहुन सा ऋतुराज विदा ले, चला लाँघ कर जब देहरी भी,
कुम्हलाये तरुपात-पीतमुख,
अकुलाये वन के प्रहरी भी,
धरा उदासी प्यासी तपती, बीत गया ख़ुशियों का रेला।
ओ पलाश! तू खिला अकेला।।
ऋतु काल परिश्रम एक रहा, मरु कण-कण का वन-कानन का,
धीरज ध्येय संग सम्मोहन, मुरली-धुन का वृन्दावन का,
मस्तक ऊँचा खड़ा निष्पृही, समरांगण का बाँका छैला।।
ओ पलाश! तू खिला अकेला।।
*** रमेश उपाध्याय ***
छंद सार (मुक्तक)
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