Sunday 6 November 2022

मेरी हड्डियाँ बचीं - एक ग़ज़ल

 



ग़ुज़र चुका जो कल यहाँ वही कहानियाँ बचीं
ज़बीं पे अनुभवों की अब लिखी नुमाइयाँ बचीं

थी ख्वाहिशें बिता सकूँ कुछेक पल सुकूँ भरे
न ही जिए न मर सके नफ़स की बेड़ियाँ बचीं

जो भी दिया है ज़ीस्त ने मैं जा रहा हूँ छोड़ कर
निभा रही हैं साथ अब भी मेरी हड्डियाँ बचीं

न फिक़्र अब कोई यहाँ न तो किसी से है ग़िला
अमूल्य तज़्रुमों की देन आज झुर्रियाँ बचीं

छड़ी सी संग संग जो मेरे चली सदैव हैं
ख़िरद की रहबरी को बस यही तज़ल्लियाँ बचीं

सदाकतों की खोज में ही चल रहे थे ये क़दम
सवाल हल न हो सके अजब पहेलियाँ बचीं

है ज़िन्दगी से प्यार तो जहां से सारे प्यार कर
यही सबक मिला यहाँ यही रसाइयाँ बचीं
🌸
कुन्तल श्रीवास्तव
(शब्दार्थ : ज़बीं- ललाट/मस्तक, नफ़स- श्वाँस, ज़ीस्त- जीवन, ग़िला- शिकायत, तज़्रुमों- तज़ुर्बों/अनुभवों, ख़िरद- मेधा/ज्ञान, रहबरी- दिशानिर्देश/साथ, तज़ल्लियाँ- प्रकाश-पुंज/ईश्वरीय नूर, सदाक़तों- सच्चाइयों/सत्य, सबक- शिक्षा/पाठ, रसाइयाँ- कौशल)

No comments:

Post a Comment

श्रम पर दोहे

  श्रम ही सबका कर्म है, श्रम ही सबका धर्म। श्रम ही तो समझा रहा, जीवन फल का मर्म।। ग्रीष्म शरद हेमन्त हो, या हो शिशिर व...