Sunday, 30 October 2022

धारा - ताटंक छंद

 

हिमखंडो का स्वेद नहीं तू, और न है कोई नारी।
हिरणी जैसी चंचल नदिया, सींच रही धरती सारी।।
फसलों की श्वासें है तुझसे, तुझसे जीवन है सारा।
तू ही गंगा तू ही जमुना, तू ही पावन ‌है धारा।।1।।

तेरे तट पर बसा नगर हर, कितना वैभवशाली है।
और पंथ पर तेरे फैली, हर डग पर हरियाली है।।
पशु पक्षी वन मानव सारे, तुझसे ‌ जीवन पाते हैं।
प्यास बुझाने तट पर तेरे, दूर दूर से ‌ आते हैं।।2।।

किन्तु दशा कर डाली कैसी, निष्ठुर मानव ने तेरी।
क्षण क्षण क्षरण हुआ जाता है, पल पल होती है देरी।।
हुई विषैली जल की धारा, मुक्ति तुझे ही पाना है।
सोये मानव मन को नदिया, अब तो तुझे जगाना है।।3।।

डाॅ. देवनारायण शर्मा

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