Sunday 30 August 2020

क़तआत



कब तक ये चलेगा ऐ ख़ुदा! दौरे क़यामत
कैसे कोई समझेगा भला तौरे क़यामत
इन्साँ की वहशतों ने ये अंजाम दिया है
बन जाएँ न हम सब कहीं अब कौरे क़यामत 

ये संक्रामक रोग न जाने कौन जहाँ से आया है
शायद मनु के दुष्कर्मों ने आदर सहित बुलाया है
अब क्यों हाहाकार मचा है, क्यों है चीख पुकार मची
मानव के आदर्शों को तो हमने ताक बिठाया है

ये करो दुआ के हो फैसला अब जान छोड़ दे ये वबा
ऐ मेरे ख़ुदा, ऐ मेरे ख़ुदा है नसीब में मेरे क्या बदा
मुझे बख़्श दे मेरे पारसा ये मेरी समझ से परे हुआ
मुझे मुआफ़ कर दे मेरे ख़ुदा के ईमान से था मैं गिर गया 

महामारी का मौसम है  मगर रोना नहीं साथी
रखो बस सावधानी धैर्य तुम खोना नहीं साथी
वही जो सोचता है वो सदा होता चला आया
इस हाहाकार से डर से तो कुछ होना नहीं साथी 


*** यशपाल सिंह कपूर, दिल्ली ***

Sunday 23 August 2020

ओ पलाश

 

जब उजड़ा फूलों का मेला।
ओ पलाश! तू खिला अकेला।।

शीतल मंद समीर चली तो, जल-थल क्या नभ भी बौराये,

शाख़ों के श्रृंगों पर चंचल, कुसुम-कली भंवरें इतराये,


जब गरमाने लगा पवन तो प्रखर-ताप लू तूने झेला।
ओ पलाश! तू खिला अकेला।। 

पाहुन सा ऋतुराज विदा ले, चला लाँघ कर जब देहरी भी,
कुम्हलाये तरुपात-पीतमुख, अकुलाये वन के प्रहरी भी,

धरा उदासी प्यासी तपती, बीत गया ख़ुशियों का रेला।
ओ पलाश! तू खिला अकेला।। 

 

ऋतु काल परिश्रम एक रहा, मरु कण-कण का वन-कानन का,
धीरज ध्येय संग सम्मोहन, मुरली-धुन का वृन्दावन का,

मस्तक ऊँचा खड़ा निष्पृही, समरांगण का बाँका छैला।।
ओ पलाश! तू खिला अकेला।।

*** रमेश उपाध्याय ***

 

Sunday 16 August 2020

मदिरा सवैया

 


धेनु चरावत श्याम पिया सुर बासुरि राह बताय रही।
काँध धरे लकुटी पटुका अँगिया शुभ पीत लुभाय रही।
कुंडल कुंचित केश कपोलन प्रीति सुधा छलकाय रही।
आँखिन के पुतरी थिरकै जनु कुंज कली मुसकाय रही।

राग हटे न विराग सधे मन मोहक मास सुहावन में।
झूलन झूल रहीं सखियाँ मिल गीत उठे जब गाँवन में।
पेंग बढावत साँवरिया अठखेलनि हास लुभावन में।
भीग रहीं रस बूँदन वा मिल रास रचावत सावन में।

रास रचावत गोप सखा सह नेह विदेह करे रसिया।
मीत तुम्हीं जन-जीवन के मन पावन गीत झरे रसिया।
गोकुल गाँव गली वन कुंज बसे घनश्याम हरे रसिया।
जीवत भूल सके न तुम्हें नित मोहन श्वाँस भरे रसिया।
 

*** डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी ***

Sunday 9 August 2020

रोटी कपड़ा और मकान

 

बहुत जरूरी है मानव को,
रोटी कपड़ा और मकान।
प्राणों की रक्षा हो इनसे,
बना रहे थोड़ा सम्मान।।

 

दौड़-धूप सब इसीलिए है,
चलता जीवन का व्यापार।
तिकड़मबाजी जो कर लेते,
उनके घर इनका अम्बार।।

 

भाग्यहीन वह भी कब पाता,
झेल रहा पल-पल अपमान।
बहुत बुरी लगती यह दुनिया,
जीवन लगता है शमशान।।

 

भटक रहे हैं कोटि-कोटि जन,
शरण-स्थली उनका फुटपाथ।
क्या जानें क्यों कृपा न करते,
थोड़ी भी उन पर रघुनाथ।।

 

सबकी चाहत अपना घर हो,
कच्चा-पक्का आलीशान ।
सरकारें भी चाह रही हैं,
हर मानव को मिले मकान।।

 

कुछ ईंटों को जोड़ बनाया,
हमने अपना नया मकान।
कर्जे की किस्तों का झंझट,
सूदखोर करता अपमान।।

 

तनखा थोड़ी झंझट ज्यादा,
ज्ञानवान लगता नादान।
नहीं बनाना, कर्जा लेकर,
कभी भूलकर मित्र मकान।।

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मुरारि पचलंगिया

Sunday 2 August 2020

प्रभु वंदना




अब सुरक्षा के लिए, कैसे गहूँ प्रभु के चरण।
हो गई व्याकुल धरा, इंसान का हो अवतरण।। 


विकट संकट विकल जन, तंद्रित पड़ा चिंतन गहन
रक्तबीजी व्याधियाँ, करने लगी मानव दलन।
चित्त मन अचरज भरा, संबंध से रीता भवन
खुदकुशी करने चला, मधुमास का शीतल पवन।।


राह में वैतरणियाँ, कैसे करेंगे संतरण।
अब सुरक्षा के लिए, कैसे गहूँ प्रभु के चरण।। 


जीत पशुता का समर, हमने किया करुणा वपन,
दैन्य दुख अपमान भय, हारे सभी कुत्सित सपन।
श्रम फला मानव हँसा, छूने लगी प्रकृति चरन,
अर्थ पौरुष सिर चढ़ा, करने लगा मानव दमन।। 


नव कुटुम्बों ने चखा, सत्ता का सुस्वादु लवण।
अब सुरक्षा के लिए, कैसे गहूँ प्रभु के चरण।। 


दहकने उर में लगी, विद्वेष की भारी अगन,
वज्र भी गलने लगा, अन्याय की पाकर तपन।
सत्य का व्यापार फल, पाने लगा अनृत सदन,
मूल मानव मूल्य का, धारक सहित होता पतन।।


ज्ञेय ने अज्ञेय का, कर लिया सामाजिक वरण।
अब सुरक्षा के लिए, कैसे गहूँ प्रभु के चरण ।।


 *** डॉ. मदन मोहन शर्मा ***
सवाई माधोपुर, राजस्थान

रीति निभाने आये राम - गीत

  त्रेता युग में सूर्य वंश में, रीति निभाने आये राम। निष्ठुर मन में जागे करुणा, भाव जगाने आये राम।। राम नाम के उच्चारण से, शीतल जल ...