Sunday 29 March 2020

घर




ईश्वर से प्राप्त सभी वर है
पर घर तो बस तुमसे घर है 


आयामों को तय करने में
जीवन की पगडंडी उलझी
पहले दिन से तुम खोल रही
गत आगत की बातें सुलझी
प्रासादों में आडम्बर है
घर का सुख विस्तृत अंबर है
आता कहने का अवसर है
जिह्वा पर अटके अक्षर है


ईश्वर से प्राप्त सभी वर है
पर घर तो बस तुमसे घर है 


बाह्याभ्यन्तर की पीड़ाएँ
जब ठंडी साँसों में जलती
स्मित मधुर वचन आश्वासन का
सुरभित मलयज चंदन मलती
क्षण भीतर ही क्षण कातर है
घर अवगुंठन की झालर है
प्लावन से कुछ तट को ड़र है
पर तल में फूटे निर्झर है 


ईश्वर से प्राप्त सभी वर है
पर घर तो बस तुमसे घर है 


कौटुम्बिक रिश्ते नातों में
विनिमय का भाव भरा गहरा
सुख-दुःख में घेरे रहता है
कोमल बाँहों का ही पहरा
निर्धनता कितनी सुन्दर है
गृहणी से ही घर मन्दिर है
तुम हो तो फिर किसका डर है
मेरा जीवन अमृत तर है 


ईश्वर से प्राप्त सभी वर है
पर घर तो बस तुमसे घर है 


*** डॉ. मदन मोहन शर्मा ***
सवाई माधोपुर, राजस्थान

Sunday 22 March 2020

भीतर का डर


बाहर के डर से लड़ लेंगे,
भीतर का डर कैसे भागे। 
**
बचपन से देखा है हमने अक्सर ख़ूब डराया जाता, 
दुःख यही है अपनों द्वारा ऐसा क़दम उठाया जाता, 
छोटी-छोटी गलती पर भी बंद किया जाता कमरे में,
फिर शाला में अध्यापक का डण्डा हमें दिखाया जाता, 
एक बात है समता का यह लागू रहता नियम सभी पर,
निर्धन या धनवान सभी के बच्चे रहते सदा अभागे। 
**
बाहर के डर से लड़ लेंगे
भीतर का डर कैसे भागे। 
**
डर की यह बुनियाद सभी के बचपन में ही पड़ जाती है,
जैसे कील नुकीली कोई गहराई तक गड़ जाती है,
और यही डर धीरे-धीरे जीवन का बनता है हिस्सा,
और धर्म के आडम्बर में सोच अभय की सड़ जाती है,
जीवन की आपाधापी में भार दवाबों का इतना है,
पता नहीं है आगत में कब निद्रा से नूतन डर जागे। 
**
बाहर के डर से लड़ लेंगे
भीतर का डर कैसे भागे। 
**
हम सब ही जीवन में डर का नित सम्मान किया करते हैं, 
अंध भक्त हों बाबाओं का क्यों गुणगान किया करते हैं,
कारण है जितने भी बाबा दिखलाते हैं डर ईश्वर का,
लाभ उठा इस भय का खुद को वे धनवान किया करते हैं,
जितने धूर्त गुरू होते हैं जीवन में अक़्सर देखा है,
उनकी सोच सदा रहती है लोगों की सोचों से आगे।
**
बाहर के डर से लड़ लेंगे
भीतर का डर कैसे भागे। 
**
 
*** गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' बीकानेरी ***

Sunday 15 March 2020

मानव/आदमी/इंसान


 
*********************
बहुत सुना और पढ़ा है मैंने
मानव के पूर्वज
बन्दर हुआ करते थे।
अब क्या बतायें आपको,
यह भी पढ़ा है मैंने,
कि कुछ भी कर लें
आनुवंशिक गुण तो
रह ही जाते हैं।
वैसे तो बहुत बदल लिया
हमने अपने-आपको,
बहुत विकास कर लिया,
पर कभी-कभी
बन्दरपना आ ही जाता है।
ताड़ते रहते हैं हम
किसके पेड़ पर ज़्यादा फ़ल लगे हैं,
किसके घर के दरवाजे़ खुले हैं,
बात ज़रूरत की नहीं,
आदत की है,
बस लूटने चले हैं।
कहलाते तो मानव हैं
लेकिन जंगलीपन में मज़ा आता है
दूसरों को नोचकर खाने में
अपने पूर्वजों को भी मात देते हैं।
बेचारे बन्दरों को तो यूँ ही
नकलची कहा जाता है,
मानव को दूसरों के काम
अपने नाम हथियाने में
ज़्यादा मज़ा आता है।
कहने को तो आज
आदमी बन्दर को डमरु पर नचाता है,
पर अपना नाच कहाँ देख पाता है।
बन्दर तो आज भी बन्दर है
और अपने बन्दरपने में मस्त है
लेकिन मानव
न बना मानव,
न छोड़ पाया बन्दरपना
बस एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर
कूदता-फाँदता नज़र आता है।
************************
*** कविता सूद ***

Sunday 8 March 2020

होली पर दोहे




झाँझ मंजीरे गोपियाँ, ले आये ढप ग्वाल।
झटपट आई राधिका, झूम उठे 'गोपाल'।।


कृष्ण राधिका कर रहे, रंगों की बौछार।
ऐसे बरसा प्रेम रस, भीगा सब संसार।।


हवा हया को ले उड़े, तन मन यूँ बोराय।
होली में साजन बिना, अंग अंग अकुलाय।।


इंद्रधनुष फीका लगे, तुझ पर ऐसे रंग।
कौन खेलता रंग से, तितली तेरे संग।।


देख पूर्णिमा चाँद को, आई तेरी याद।
दिल होली से जल रहा, आस हुई प्रह्लाद।।


विजय फूल की शूल पर, याद रहे संसार।
नहीं साँच को आँच है, होली का त्योंहार।।


अभी तलक बेरंग हूँ, रंग अभी तो डाल।
तुझको भाये रंग जो , वही डाल 'गोपाल'।।
========================
*** आर. सी. शर्मा "गोपाल" ***

छंद सार (मुक्तक)

  अलग-अलग ये भेद मंत्रणा, सच्चे कुछ उन्मादी। राय जरूरी देने अपनी, जुटे हुए हैं खादी। किसे चुने जन-मत आक्रोशित, दिखा रहे अंगूठा, दर्द ...