Sunday 29 May 2022

कुंडलिया





रखना मन में सोचकर, आज समय के राज।
एक साथ करते चलें, एक पंथ दो काज।।
एक पंथ दो काज, चतुरता हम दिखलायें।
दो पंछी लें मार, शिलीमुख एक चलायें।।
कहता समय पुकार, एक मत साधे रहना।
भले चलो इक राह, नज़र दो पर ही रखना।।

सपना हो उत्कर्ष का, शीश सजे तब ताज।
कर्म करें इस भाँति हों, एक पंथ दो काज।।
एक पंथ दो काज, शूरता फिर भी माफी।
तन-मन दोनों तृप्त, मेघ-जल धारा काफी।।
उदर पूर्ति का लक्ष्य, नहीं हो केवल अपना।
दूजों का भी ध्यान, तभी पूरा हो सपना।।

*** डॉ. राजकुमारी वर्मा 

Sunday 22 May 2022

भोर सुहानी

 



है भोर सुहानी, नवल कहानी, भँवरा गुन गुन, क्यों करता।
मतवाला आली, नज़रें काली, गुल के अधरों, पर धरता।।
चादर इक झीनी, बगिया भीनी, ओस पर्ण पर, इठलाई।
किरणों की डोली, चढ़कर भोली, भोर सहज ही, मुस्काई।।

अलसाए तारे, मद्धिम सारे, सुध बिसराए, अस्त हुए।
निद्रा को त्यागे, सुधिजन जागे, नित्यकर्म में, व्यस्त हुए।।
झिलमिल जली ज्योति, स्नेह भिगोती, ध्वनि झालर की, मन मोहे।
उल्लास बिखेरे, सुबह सवेरे, डाल पँखेरे, अति सोहे।।

कलियों ने खोले, घूँघट हौले, रंग चटक हैं, बिखराये।
रंगों की चितवन, उतरी तन-मन, शोक दुःख सब, बिसराये।।
तरु शोभा मण्डित, पुष्प सुगंधित, लता झूमकर, लिपटाई।
मुस्काती आई, ज्यूँ तरुणाई, धूप विचरती, है छाई।।

प्राची ने घोली, कुमकुम रौली, रक्तवर्ण रवि, झाँक रहा।
स्वर्णिम आयुध ले, जग की सुध ले, निज किरणों से, अंक गहा।।
कोकिल की बोली, मधुरस घोली, छोड़ नीड़ को, खग भागे।
मदमस्त मयूरा, नाचत पूरा, प्राणवन्त हो, जग जागे।।

*** आभा 'उर्मिल'

Sunday 15 May 2022

ऐ राही

 



देखा है किसने कल राही
तू अपने पथ पर चल राही

बाधाएँ बाधक हैं उनको
भूले जो अपना बल राही

गिरि कंदर धरती नभ सागर
सब हैं तेरे कर तल राही

जब जब जग माॅंगे तब देता
तू ही मसलों का हल राही

साहस के दुर्गम पथ पर ही
पथिकों का बनता दल राही

हिमगिरि से सागर तक फैला
तेरे छालों का जल राही

चलना तो ईश्वर का वर है
रुकना जीवन से छल राही
~~~~~~~
डॉ. मदन मोहन शर्मा
सवाई माधोपुर, राज.

Sunday 8 May 2022

निवेदन आपसे




संवाद में कुछ शब्द हैं चुपचाप-से
आरम्भ में कर लूँ निवेदन आपसे

वैसे व्यथा तो ओट में ली साज़ ने
कुछ दर्द ज़ाहिर हो गए आलाप से

शुरुआत मेरे नृत्य की ऐसी रही
जब बोल फूटे ढोल के, इक थाप से

तबसे शुरू है ये मेरी दीवानगी
परिचित नहीं था जब मैं अपने आपसे

चाहे थकन से चूर गहरी नींद हो
पहचान लेगा दिल ख़ुशी पदचाप से

है कामयाबी का असर अब उलझनें
कितनी बड़ी हैं आज मेरे नाप से

उद्भव हुआ है इस धरा पर पुण्य का
कुछ दान से कुछ कर्म से कुछ जाप से

*** मदन प्रकाश सिंह 

Sunday 1 May 2022

मनुष्य/व्यक्ति/आदमी

 



सत्य से ऐसा भगा है आदमी
झूठ का पुतला लगा है आदमी

हो गई लगता मिलावट ख़ून में
दे रहा ख़ुद को दगा है आदमी
ज़िंदगी का चैन उसने खो दिया
नींद में लगता जगा है आदमी
रोज काँटे बो रहा अपने लिए
अब नहीं ख़ुद का सगा है आदमी
"चंद्र" को होने लगी पहचान अब
रंग कैसा भी रँगा है आदमी

*** चंद्र पाल सिंह "चंद्र"

रीति निभाने आये राम - गीत

  त्रेता युग में सूर्य वंश में, रीति निभाने आये राम। निष्ठुर मन में जागे करुणा, भाव जगाने आये राम।। राम नाम के उच्चारण से, शीतल जल ...