Sunday 27 October 2019

दीवाली गीत

 

जीवन-अमा घनेरी, नम आस-दीप जलते।
मृग-तृषा वेदना में, मृदु दिवा-स्वप्न पलते॥

नित चाह होम होती, नव भोर आस बोती।
स्वर्णिम क्षितिज खुलेगा, मन-कामना सँजोती।
तिल-तिल शिखा जली है, मन-मोम दीप गलते।
मृग-तृषा वेदना में, मृदु दिवा-स्वप्न पलते॥

लघु वर्तिका सुलगती, सित वासना हृदय में।
वह झूठ-मूठ बंदिश, माँ गा रही सदय में।
सोई कली अभी चुप, हैं अक्ष-तुहिन ढलते।
मृग-तृषा वेदना में, मृदु दिवा-स्वप्न पलते॥

शुचि यामिनी अमावस, धरती-गगन मिलन है।
मन बावरा हुआ-सा, यह बाल-मन सुमन है।
फुलझरी जुगनुओं की, तारे प्रदीप्त छलते।
मृग-तृषा वेदना में, मृदु दिवा-स्वप्न पलते॥

दे प्यार भरी झप्पी, चीवर उढ़ा दिया है।
शिशु मुग्ध करे माँ को, प्रिय आँख का दिया है।
यह नेह-लक्ष्मी है, आशीष यहाँ फलते।
मृग-तृषा वेदना में, मृदु दिवा-स्वप्न पलते॥

*** सुधा अहलूवालिया ***

Sunday 20 October 2019

एक गीत

 

बल के रूप अनेक हैं, और बहुत से नाम।
करें कभी सद्कार्य ये, करें बुरा भी काम।।


धन-बल, भुज-बल बुद्धि-बल, रहता जिनके संग,
सुविधाओं की बाढ़ ले, घर नित बहती गंग,
इसीलिए तो भाग्य भी, होय न उनका वाम।1।


दल-बल, छल-बल के धनी, करें जगत पर राज,
हाथ जोड़ के सबल सब, करते उनके काज।
निबल सदा दरबार में, झुक-झुक करें सलाम।2। 


आत्म-बली का बल सदा, बनता उसकी शक्ति,
सब बल मिलकर रोज ही, करते उसकी भक्ति,
दुख की बारिश में उसे, होता नहीं ज़ुकाम।3। 


सत-पथ गामी जो रखे, श्रम- बल अपने साथ,
ऋद्धि-सिद्धि सी देवियां, थामें उसका हाथ,
उसके रक्षक जगत में, रहें सदा श्री राम।4।


*** अवधूत कुमार राठौर ***

Sunday 13 October 2019

बस गान तेरा ही करुँ


 
पुष्प या बहु कंटकों से पथ भरा हो
हों प्रकीर्णित रश्मियाँ या कोहरा हो
जो तुम्हारे द्वार तक ले जाए मुझको
बस यही वरदान दो प्रभु! मैं सदा, उस पंथ पर ही पग धरूँ


नींद में होऊँ भले या चेतना में
हर्ष में होऊँ भले या वेदना में
एक पल भूलूँ नहीं तुमको कभी मैं
बस यही हे ईश कर दो, चित्त तुमसे ही सदा अपना भरूँ 


तीव्र लहरें हों भले या शांत धारा
दीखता हो दूर कितना ही किनारा
आ रही हो ज्योति तेरी जिस दिशा से
बस यही भगवान वर दो, नाव का अपनी उधर ही रुख करूँ


*** प्रताप नारायण ***

Sunday 6 October 2019

रावण वध


बाहर का रावण मर करके,
फिर जिंदा हो जाएगा।
मार सको तो मारो अपने,
अंदर बैठे रावण को।


गूढ़ अर्थ है विजयपर्व का,
चिंतन जरा सँभालो तो।
मानस का अंतर्संदेशा,
आओ जरा खँगालो तो।
विजय सत्य की थी असत्य पर,
सोचो तो इस कारण को।
मार सको तो मारो अपने,
अंदर बैठे रावण को।


रावण रथी, विरथ थे राघव,
सैन्य शक्ति भी ज्यादा थी।
पर रघुनंदन के अंतस में,
शाश्वत बस मर्यादा थी।
तभी तो लंका झेल न पायी,
हनुमत कष्ट निवारण को।
मार सको तो मारो अपने,
अंदर बैठे रावण को।


आत्मशक्ति का दीप्त मंत्र ही,
जग में शक्ति साधना है।
कर्मयोग से सदाचार ही,
प्रतिपल हमें बाँचना है।
रसना रटे सदा इस उद्भट,
बीजमंत्र उच्चारण को।
मार सको तो मारो अपने,
अंदर बैठे रावण को।


*** अनुपम आलोक ***

छंद सार (मुक्तक)

  अलग-अलग ये भेद मंत्रणा, सच्चे कुछ उन्मादी। राय जरूरी देने अपनी, जुटे हुए हैं खादी। किसे चुने जन-मत आक्रोशित, दिखा रहे अंगूठा, दर्द ...