Sunday 28 October 2018

करे कोई भरे कोई




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करे कोई भरे कोई, कहावत यह पुरानी है।
गुसांई दास तुलसी ने, इसे कुछ यों बखानी है।
करे अपराध जिह्वा पर, पिटाई पीठ की होती।
मढ़े जो और पर गलती, वही अब ब्रह्म ज्ञानी है।।
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अजब दस्तूर दुनिया का, करे कोई भरे कोई।
इन्हीं उल्टे रिवाजों से, ये अंतर आत्मा रोई।
दिखे सुख चैन में दोषी, यहाँ निर्दोष कष्टों में।
डरे अल्लाह नंगे से, हया जिसने स्वयं खोई।।
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वही पंडित पुरोहित भी, वही है मौलवी काजी।
रखे जो हाथ में अपने, सदा हर खेल की बाजी।
जमाना लम्पटों का है, पड़ें सब पर वही भारी।
भरी जिसकी रगों में है, दगाबाजी दगाबाजी।।
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बजा ले गाल जो जितने, करे जो श्रेष्ठ ऐयारी।
सदा खुद की खता को जो, किसी पर थोप दे सारी।
हिले पत्ता न कोई भी, बिना उसके इशारे के।
समझिए कर चुका है अब, निज़ामत की वो तैयारी।।
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जगत में जो बड़ा काफिर, वही तो तख्त पाता है।
स्वयं के कारनामों में, शरीफों को फँसाता है।
बदल दे झूठ को सच में, चढ़ा दे सत्य को सूली।
करे कोई भरे कोई, यही करके दिखाता है।।


*** हरिओम श्रीवास्तव ***

Sunday 21 October 2018

कोमल पैरों में - एक कविता




कोमल पैरों में कहीं चुभें दूर्वा के तृण,
इससे डरकर क्या पथ चलना दें त्याग सखे
। 

मखमल आदत में अगर रहा भी हो शामिल,
क्या पाषाणी सच से हम जाएँ भाग, सखे
।।


गीता ने माना, दिए कर्म-उपदेश बहुत,
ठुकरा दें क्या जो मिलें कभी फुर्सत के क्षण।
क्या है आवश्यक, वह उतावला-सा ही हो,
क्या धीरज धरना सीख नहीं पाएगा प्रण।।


माना,कठोर होने को अब कह रहा समय,
कोमल अहसासों के सिर क्यों दें आग, सखे।।


मौसम आँधी वाले हैं,क्या इससे घबरा,
तुलसी का पौधा खुद को कर ले काष्ठ-सदृश।
क्षणभंगुर जीवन का आनन्द न ले पाए,
क्यों बस गुलाब मुरझाने को ही रहे विवश।।


रंगों वाले हाथों तक कीच चली आई।
क्या अंतिम विदा ले गया है अब फाग, सखे।।


माना, मन तो हो चुके किसी पत्थर-जैसे।
क्या लहज़े को भी नरम नहीं रख सकते हैं।।
अंतर्मन को क्या ज़रा राग की ऊष्मा से।
अब कुछ क्षण भी हम गरम नहीं रख सकते हैं।।


दो-चार ज़रा मीठी-मीठी बातें कर लें।
हो भले न कुछ आपस में भी अनुराग, सखे।।


*** पंकज परिमल ***

Sunday 14 October 2018

वंदना - शृंगार छन्द

 


'सत्य की विजय' दशहरा-पर्व।
मनाते अनुभव होता गर्व॥
सदा मर्यादा का हो भान।
तभी हो सफल राम गुणगान॥1॥


शब्द 'माँ' शुद्ध बीज इक मंत्र।
व्यर्थ सब अन्य यंत्र या तन्त्र॥
करें आह्वान मातृ नवशक्ति।
करें माता की नवधा-भक्ति॥2॥


शरद ऋतु का अनुपम त्योहार।
दशहरा-महिमा अपरम्पार॥
मनाये पूरा भारत देश।
'अलग पर एक' यही संदेश॥3॥

 
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 *** कुन्तल श्रीवास्तव ***

Sunday 7 October 2018

क्या करें - एक ग़ज़ल



विष भरे जिसके हृदय हो प्यार उनसे क्या करें
है पड़ोसी दुष्ट तो व्यवहार उनसे क्या करें


घात करते रोज उनके कर्म सब नापाक हैं
कब्र में जा खुद छिपे जो रार उनसे क्या करें


चाहते मिलना गले पर हाथ में लेकर छुरी
चाल जिनकी छल भरी सहकार उनसे क्या करें


चेतना जिनकी दबी अज्ञानता के बोझ से
मूढ़ता भारी भरी तकरार उनसे क्या करें


गिद्ध सारे नोचते विश्वास की मृत देह को
कामना जिनकी हवस अभिसार उनसे क्या करें


कर्म से मन से वचन से जो समर्पण कर चुका
भूख जिसको ज्ञान की इंकार उनसे क्या करें


धर्म पथ पर देह आहत क्या करें अनजान हम
गैर है चारों तरफ़ मनुहार उनसे क्या करें


*** भीमराव झरबड़े "जीवन" बैतूल

प्रस्फुटन शेष अभी - एक गीत

  शून्य वृन्त पर मुकुल प्रस्फुटन शेष अभी। किसलय सद्योजात पल्लवन शेष अभी। ओढ़ ओढ़नी हीरक कणिका जड़ी हुई। बीच-बीच मुक्ताफल मणिका पड़ी हुई...