Sunday 27 September 2020

साँझ सुरमई - एक गीत

 


साँझ सुरमई सजी सलोनी,
बिम्ब उभरता बहते जल में।
 
शून्य सजाकर चंद्र उतारा,
धरा गगन तक पाँव पसारे ।
मचल रहा जो लहर लहर पर,
छुपा अंक में झिलमिल तारे।
नियमित है ये नियति साधना,
उदित हुआ ज्यों नूतन तल में।
बिम्ब उभरता बहते जल में।
 
सौंप दिया है विधि ने विधु को,
धवल चंद्रिका सुधा यामिनी।
विरह, मिलन, यादों की निधियाँ,
अंक समेंटे - गीत रागिनी।
चाहत बनकर हृदय समाहित,
वार दिया सब मन निश्छल में।
बिम्ब उभरता बहते जल में।
 
विकल हृदय में उठे ज्वार सम,
अंतस उर्जित एक अर्चना।
प्रीत सँवारे प्रीत बटोरे,
नीरवता भी करे सर्जना।
अंग तरंगित निशा सुहानी,
कल आज वही बढ़ता कल में।
बिम्ब उभरता बहते जल में।
 
*** डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी ***

Sunday 20 September 2020

आदमी

 


आदमी से बात करना चाहता है आदमी
साथ में औकात रखना चाहता है आदमी
 
मौज में है मखमली तन ये सभी को है पता
टाट के पैबंद ढकना चाहता है आदमी 
 
गौर करता कौन है जी झौंपड़ी की आग पर
देख अपनी राह बढ़ना चाहता है आदमी
 
मर गया ईमान सबका दौलतों के दौर में
खून पीकर पेट भरना चाहता है आदमी
 
हौंसलों को रोक पाना ना किसी के हाथ में
"हाँकला" से रोज लड़ना चाहता है आदमी
 
*** गोविन्द हाँकला ***


Sunday 13 September 2020

निर्धन

 


उन्नत मन-शक्ति
अव्यक्त अभिव्यक्ति
समय क्षुब्ध, व्यथित तन, शांत-मन
प्रतिदिन तिमिरांत रात्रि अवसान गहन।
भानु उदय पर मन चपल
धुम्रांत विव्हल।
अस्त-ध्वस्त-त्रस्त
काल के कपाल पर पस्त।
दैनन्दिनी
मात्र रोटी व श्रम
जीविकोपार्जन का क्रम
आक्रान्त
फिर भी शांत
संसार सागर में
लहरों के हवाले
भाग्य विधाता
अविधाता
आँखें अश्रुपूरित
ह्रदय फिर भी पाषाण सा दृढ़
धैर्य और हिम्मत की प्रतिमूर्ति
करुणा और दया की मूर्ति
अपूर्ण क्षतिपूर्ति।
ग़रीबी
एक अभिशाप
वस्त्र तार-तार
आवास विहीन लाचार।
भूख से पेबस्त
अस्त ध्वस्त त्रस्त।
एक त्रासदी
कर अन्तस दृष्टिपात
कर स्व-लक्ष्य सफल।
जिजीविषा क्षरित पल पल प्रतिपल।
यह दृश्य आम नहीं खास है
भारत में गरीब और देश में विकास है।
 
*** सुरेश चौधरी ***

Sunday 6 September 2020

ये फूल

 


इन फूलों को देखकर

अकारण ही मन मुस्काए।

न जाने

किस की याद आये।

तब,यहाँ

गुनगुनाती थी चिड़ियाँ।

तितलियाँ पास आकर पूछती थीं,

क्यों मन ही मन शरमाये।

उलझी-उलझी सी डालियाँ,

मानो गलबहियाँ डाले,

फूलों की ओट में छुप जायें।

हवाओं का रुख भी

अजीब हुआ करता था,

फूलों संग लाड़ करती

शरारती-सी

महक-महक जायें।

खिली-खिली-सी धूप,

बादलों संग करती अठखेलियाँ,

न जाने क्या-क्या कह जाये।

झरते फूलों को

अंजुरि में समेट

मन बहक-बहक जाये।

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*** कविता सूद ***

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