साँझ सुरमई सजी सलोनी,
बिम्ब उभरता बहते जल में।
शून्य सजाकर चंद्र उतारा,
धरा गगन तक पाँव पसारे ।
मचल रहा जो लहर लहर पर,
छुपा अंक में झिलमिल तारे।
नियमित है ये नियति साधना,
उदित हुआ ज्यों नूतन तल में।
बिम्ब उभरता बहते जल में।
सौंप दिया है विधि ने विधु को,
धवल चंद्रिका सुधा यामिनी।
विरह, मिलन, यादों की निधियाँ,
अंक समेंटे - गीत रागिनी।
चाहत बनकर हृदय समाहित,
वार दिया सब मन निश्छल में।
बिम्ब उभरता बहते जल में।
विकल हृदय में उठे ज्वार सम,
अंतस उर्जित एक अर्चना।
प्रीत सँवारे प्रीत बटोरे,
नीरवता भी करे सर्जना।
अंग तरंगित निशा सुहानी,
कल आज वही बढ़ता कल में।
बिम्ब उभरता बहते जल में।
*** डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी ***
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