जब उजड़ा फूलों का मेला।
ओ पलाश! तू खिला अकेला।।
शीतल मंद समीर चली तो, जल-थल क्या नभ भी बौराये,
शाख़ों के श्रृंगों पर चंचल, कुसुम-कली भंवरें इतराये,
जब गरमाने लगा पवन तो प्रखर-ताप लू
तूने झेला।
ओ पलाश! तू खिला अकेला।।
पाहुन सा ऋतुराज विदा ले, चला लाँघ कर जब देहरी भी,
कुम्हलाये तरुपात-पीतमुख,
अकुलाये वन के प्रहरी भी,
धरा उदासी प्यासी तपती, बीत गया ख़ुशियों का रेला।
ओ पलाश! तू खिला अकेला।।
ऋतु काल परिश्रम एक रहा, मरु कण-कण का वन-कानन का,
धीरज ध्येय संग सम्मोहन, मुरली-धुन का वृन्दावन का,
मस्तक ऊँचा खड़ा निष्पृही, समरांगण का बाँका छैला।।
ओ पलाश! तू खिला अकेला।।
*** रमेश उपाध्याय ***
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