Sunday 23 August 2020

ओ पलाश

 

जब उजड़ा फूलों का मेला।
ओ पलाश! तू खिला अकेला।।

शीतल मंद समीर चली तो, जल-थल क्या नभ भी बौराये,

शाख़ों के श्रृंगों पर चंचल, कुसुम-कली भंवरें इतराये,


जब गरमाने लगा पवन तो प्रखर-ताप लू तूने झेला।
ओ पलाश! तू खिला अकेला।। 

पाहुन सा ऋतुराज विदा ले, चला लाँघ कर जब देहरी भी,
कुम्हलाये तरुपात-पीतमुख, अकुलाये वन के प्रहरी भी,

धरा उदासी प्यासी तपती, बीत गया ख़ुशियों का रेला।
ओ पलाश! तू खिला अकेला।। 

 

ऋतु काल परिश्रम एक रहा, मरु कण-कण का वन-कानन का,
धीरज ध्येय संग सम्मोहन, मुरली-धुन का वृन्दावन का,

मस्तक ऊँचा खड़ा निष्पृही, समरांगण का बाँका छैला।।
ओ पलाश! तू खिला अकेला।।

*** रमेश उपाध्याय ***

 

7 comments:

श्रम पर दोहे

  श्रम ही सबका कर्म है, श्रम ही सबका धर्म। श्रम ही तो समझा रहा, जीवन फल का मर्म।। ग्रीष्म शरद हेमन्त हो, या हो शिशिर व...