Sunday 28 April 2019

सुनो सखी री


लोभी हूँ मैं, सुनो सखी री, अजब लगा यह रोग है।
लोभ सजन के घर जाने का, बोलो! कब संयोग है।


लोभ नहीं है रंगमहल का, कुटिया में रह लूँगी मैं।
कनक करधनी बिना नौलखा, प्रीतम को गह लूँगी मैं।
प्रीत पगे साजन के बयना, मेरा छप्पन भोग है।
लोभी हूँ मैं सुनो सखी री, अजब लगा यह रोग है।


लोभ एक ही शेष बचा है, साजन के घर जाने का।
आलिंगन में लेकर उनको, सारी उमर रिझाने का।
बिन साजन के सच कहती हूँ, जीवन मेरा जोग है।
लोभी हूँ मैं सुनो सखी री, अजब लगा यह रोग है।


अपनी चूनर डाल सजन जी, जिस दिन घर ले जाएँगे।
अष्टसिद्ध,नवनिधि की थाती, हम खुद ही पा जाएँगे।
फिर न लोभ होगा कोई, पर साजन बिना वियोग है।
लोभी हूँ मैं सुनो सखी री, अजब लगा यह रोग है।


*** सुनीता पाण्डेय 'सुरभि' ***


Sunday 21 April 2019

मान-मर्यादा पर बरवै छंद

 
गरिमा इसकी गुरुतर, कर गुणगान।
अब भी अपना भारत, देश महान॥1॥


अपने कर्म निभायें, दिन हो रात।
तोड़ें मत मर्यादा, तब है बात॥2॥


साथ-साथ करना है , हमें विकास।
करना होगा सबके, दिल में वास॥3॥


भारतवर्ष हमारा, है अभिमान।
रहे तिरंगा झंडा, इसकी शान॥4॥


पर्वत इसके प्रहरी, नदियाँ शान।
सागर चरण पखारें, गायें गान॥5॥


शस्य-श्यामला धरती, है कृषि कर्म।
पर्यावरण बचायें, सबका धर्म ॥6॥


मर्यादा पुरुषोत्तम, थे श्री राम।
हम भी कर्म करें वह, हो कुछ नाम॥7॥


🌸
*** कुन्तल श्रीवास्तव ***

Sunday 14 April 2019

उम्र की चाल



सभी की इस उमर की जब जहाँ भी शाम ढलती है
अधूरी चाह रह रह के सदा मन में मचलती है


न बचती शेष तन ताकत नहीं मन दम अजी बचता
नज़र से देख के ही फिर अजी इच्छा बहलती है


ढले जब आयु का सूरज न मिलती जोश की गर्मी
कभी नज़रें बहकती हैं कभी रसना बहकती है

 
उमर भी चीज़ क्या यारो बढ़ाने की ललक सब में
मगर घटती सदा ये तो कभी यारो न बढ़ती है


नहीं पूछो कभी भी तुम कि बाला क्या उमर तेरी
करे जम के खिंचाई वो अजी खुल कर भड़कती है


युवा जमकर बिदकते हैं दिखे कोई अगर बूढ़ा
नहीं हों वे कभी बूढ़े युवा मन सोच पलती है


गिरे सब दाँत पर चाहत चने को है चबाने की
इसे पा लें उसे छू लें उमर हर बार छलती है


*** अवधूत कुमार राठौर ***

Sunday 7 April 2019

राम की धरती



आकर घर में खुशियाँ कैसे, मेरी रिश्तेदार बने।
कैसे खेलूँ खेल-खिलौने, कैसे घर त्योहार मने।।

इन आँखों में आकर सपने, इच्छाओं को छलते हैं।
पीड़ा के पैगम्बर सारे, इन नयनों में पलते हैं।।
काश कभी हम दीनों का भी, कोई पालनहार जने।
कैसे खेलूँ खेल-खिलौने, कैसे घर त्योहार मने।।


भूखे उठना, भूखे सोना, पड़ा दुखों का डेरा है।
अक्सर ही कुनबे में मेरे, करे भूख पग फेरा है।।
कैसे जिएँ बताओ कोई, पास नहीं जब यार चने।
कैसे खेलूँ खेल-खिलौने, कैसे घर त्योहार मने।। 


यही राम की है धरती क्या, यही कर्ण की थाती है।
यहीं प्रज्वलित रही भला क्या, दया-धर्म की बाती है।।
यहीं मिले क्या कृष्ण-सुदामा, उत्तर के व्यवहार घने।
कैसे खेलूँ खेल-खिलौने, कैसे घर त्योहार मने।। 


*** अनुपम आलोक ***

रीति निभाने आये राम - गीत

  त्रेता युग में सूर्य वंश में, रीति निभाने आये राम। निष्ठुर मन में जागे करुणा, भाव जगाने आये राम।। राम नाम के उच्चारण से, शीतल जल ...