Sunday 25 November 2018

राधिका छंद


1-

है अपना हिन्दुस्तान, जगत में न्यारा।
लगता जन-गण-मन गान, हमें अति प्यारा।।
हैं भाषा वेश अनेक, संघ का ढाँचा।
जहँ संविधान भी एक, बना है साँचा।।


2-


है लोकतंत्र की यहाँ, व्यवस्था न्यारी।
जिसमें शासन की शक्ति, वोट में सारी।।
जनता देकर निज वोट, बने बेचारी।।
इसमें यह भारी दोष, और लाचारी।।


3-


है राजनीति में आज, बहुत पौबारा।
फिरता है केवल आम, आदमी मारा।।
सब नेताओं का एक, आज का नारा।
जनता का है जो माल, हड़प लो सारा।।


4-


जो हैं घोटालेबाज, चोर आवारा।
चुन जाते हैं फिर लोग, वही दोबारा।।
नेतागण सभी समान, नहीं कुछ चारा।
चूसो जनता का खून, आज का नारा।।


5-


मैं ही हूँ सबसे श्रेष्ठ, आज का नारा।
कर दे यदि कोई प्रश्न, चढ़े फिर पारा।।
जब जैसी चाहूँ जिधर, मोड़ दूँ धारा।
मेरा ही लगता रहे, सदा जयकारा।।


*** हरिओम श्रीवास्तव ***

Sunday 18 November 2018

एक गीत - शिशु मन से मैं करता बात

 
 

किसको चिंता यहाँ उम्र की, शिशु मन से मैं करता बात,
पोती नाती के सँग बीते, जीवन का ये सुखद प्रभात।


प्रश्न पूछकर करें निरुत्तर, उलझन तब होती हर बार,
सोच सोच कर प्रश्न समझता, मन में होती तब तकरार,
बाबा-पोते झगड़ रहें क्यों, पत्नी सुन पूछे यह बात,
किसको चिंता यहाँ उम्र की, शिशु मन से मैं करता बात।


शान्त नहीं होते हैं बच्चे, बिना हुए जिज्ञासा शान्त,
चुप होने को कहता फिर मैं, मुझे चाहिए कुछ एकान्त,
तभी सुझाये माँ वीणा कुछ, जाकर तब बनती कुछ बात,

किसको चिंता यहाँ उम्र की, शिशु मन से मैं करता बात।

खिलती कलियाँ तभी देखते, जब हम करते थोड़ा त्याग,
सिद्ध करे शिशु शिक्षित बनकर, घर का बनता वही चिराग,
घर का सपना पूरा होता, मिलती तब सुंदर सौगात,
किसको चिंता यहाँ उम्र की, शिशु मन से मैं करता बात।


*** लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला ***

Sunday 11 November 2018

दीप-ज्योति प्रज्ज्वलित है


दीप-जीवन, ज्योति प्रभु की प्रज्ज्वलित है।
नेह-घृत में आत्म-बाती आगलित है॥ 


ज्योति-घट छलका बना अस्तित्व तेरा।
मातु-पितु से है सुभग सुकृतित्व तेरा।
है उन्ही की रोशनी तुझको मिली जो।
डाल अब कुछ नेह तू भी लौ चली वो।
धुन्ध बन कर दीप बुझता शुचि ललित है॥

है बुझा दीपक किसी का अमर हो कर।
जी गया वह जिन्दगी को मृत्यु बो कर।
हौसलों की आग में जलता रहा जो।
आँधियों के मध्य भी पलता रहा वो।
वीर सैनिक-दीप भारत का फलित है॥

आस-दीपक गुल, सबेरा है किसी का।
करुण-आभा में बसेरा है किसी का।
हम चिरागों को जलालें आज ऐसे।
चन्द्र की सोलह कला का साज जैसे।
ज्ञान का ही दीप जीवन में कलित है॥
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*** सुधा अहलूवालिया ***


(आगलित - भीगी हुई)

Sunday 4 November 2018

अंतर्वेदना का एक गीत


 
शरण नहीं निज प्यार जाँचने आए हैं।
दया नहीं अधिकार माँगने आए हैं। 


ढूँढ़-ढूँढ़ कर हार गए तेरा आँगन,
बैठ गयी फिर थके बटोही-सा साजन,
सुधियों के सब चित्र नैन में घूम गए,
बंद नयन में जब अतीत घूमा पावन। 


उन यादों की पीर तुम्हारे आँगन में,
जग से हम थक-हार टाँगने आए हैं, 

दया नहीं अधिकार माँगने आए हैं। 

निर्मोही कुछ दिशा बता दो, आ जाऊँ,
जीवन अंबर पर तेरे मैं छा जाऊँ,
आत्मसात कर तेरा सारा दर्द प्रिये,
खुशियों के नवगीत मधुर से गा जाऊँ। 


भुजपाशों में तेरे, अपने जीवन का,
सारा बोझिल भार दाबने आए हैं,
दया नहीं अधिकार माँगने आए हैं। 


प्यार नहीं तो, फिर आहें भरना कैसा,
प्रणय निवेदन छवियों से करना कैसा,
हर आगत से कुशल हमारी जब पूछी,
फिर बाँहों में भरने से डरना कैसा। 


अपनी खुशियाँ छोड़ तुम्हारी दुनिया में,
अपना हर सम्बंध बाँचने आए हैं,
दया नहीं अधिकार माँगने आए हैं। 


*** अनुपम आलोक ***

रीति निभाने आये राम - गीत

  त्रेता युग में सूर्य वंश में, रीति निभाने आये राम। निष्ठुर मन में जागे करुणा, भाव जगाने आये राम।। राम नाम के उच्चारण से, शीतल जल ...