लेखनी उत्कंठिता हो, जब सृजन आयाम चाहे।
भावना संपृक्त होकर, सृष्टि-हित निष्काम चाहे।
नाप लेती है धरा से,
दूरियाँ अम्बर तलक की।
दृष्टि जिसकी देख लेती,
सूक्ष्मता अंतर तलक की।
आन्तरिक यात्रा करे यह, पल नहीं विश्राम चाहे।
लेखनी उत्कंठिता हो, जब सृजन आयाम चाहे।
दुःख-पीड़ाएं घनेरी,
मार्ग कर अवरुद्ध देतीं।
तप्त मन की आह में जब,
वेदनाएँ श्वास लेतीं।
ढूँढती हल प्राण-मन से, फल सुफल अभिराम चाहे।
लेखनी उत्कंठिता हो, जब सृजन आयाम चाहे।
युद्ध मन-मस्तिष्क का भी,
जीतना मन्तव्य जिसका।
पार कर सोपान अगणित,
लोकहित कर्तव्य जिसका।
ध्येय-पथ का अनुसरण जो, अनवरत अविराम चाहे।
लेखनी उत्कंठिता हो, जब सृजन आयाम चाहे।
डॉ. राजकुमारी वर्मा
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