आहट अरुण की सुन उषा, तब माँग में सिंदूर भर।
चल दी सजन के साथ सज, आलोक दिशि-दिशि पूर कर।
वो हो गया चेतन नजर, जिस ओर भी वह डाल दे।
प्राची विहँसती खिल उठी, कुंकुम तिलक रवि भाल दे।
आश्रम हुए जाग्रत हवन का, धूम्र नभ पर छा गया।
ओंकार ध्वनि की गूँज में फल , मौन योगी पा गया।
आहूत देवों हित बटुक, नैवेद्य से भर थाल दे।
प्राची विहँसती खिल उठी , कुंकुम तिलक रवि भाल दे।
कोकिल मधुर वाणी उचारे, मन्त्र निज रव गान कर।
मधुकर करे गुंजन प्रणव को, मात्र किंचित दान कर।
प्रस्फुटन के हित पंकजों को, नीर निर्मल ताल दे।
प्राची विहँसती खिल उठी , कुंकुम तिलक रवि भाल दे।
*** डॉ. राजकुमारी वर्मा
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