हो कृपा की वृष्टि जग पर वामना।
मंगलमयी सृष्टि हो मन-कामना॥
नाव मेरी प्रभु फँसी मँझधार है,
हाथ में टूटी हुई पतवार है,
दूर होता जा रहा संसार है,
अब न जीवन का यहाँ आधार है,
हाथ मेरा तुम सदा प्रभु थामना।
मंगलमयी सृष्टि हो मन-कामना॥1॥
हर तरफ़ कैसा अँधेरा छा रहा,
अब कहीं कुछ भी नहीं दिख पा रहा,
धुन्ध में जीवन बिखरता जा रहा,
इस धुएँ से दम निकलता जा रहा,
प्रभु! अँधेरों से न अब हो सामना।
मंगलमयी सृष्टि हो मन-कामना॥2॥
सत्य शिव की राह यह छूटे नहीं,
कल्पना की डोर प्रभु टूटे नहीं,
नव सृजन का स्वप्न हर साकार हो,
सत्य शिव सुन्दर जगत आधार हो,
साथ देना तुम नहीं करना मना।
मंगलमयी सृष्टि हो मन-कामना॥3॥
*** कुन्तल श्रीवास्तव

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