श्वास के सोपान को चढ़ता गया मैं।
आस औ विश्वास को गढ़ता गया मैं।
ठाँव हैं प्रति पलों के क्षण भर ठहर है।
ज्योति आभा देह में चेतन सुवासित।
रेख है प्रारब्ध की अंजुल सुशासित।
समय की गति को निरत पढ़ता गया मैं।
मील के पत्थर बहुत थे यात्रा में।
सुख मिले दुख भी बहुत थे मात्रा में।
कर्म की कुछ शिलाओं पर नाम मेरा।
धर्म के संसार में था धाम मेरा।
रात-दिन प्रभु नाम को कढ़ता गया मैं।
नाव जीवन की चली भवसिन्धु में है।
आयु का परिणाम संचित बिन्दु में है।
धर्म की पतवार थामें मैं चला हूँ।
ईश करुणा में, उसीकी मैं कला हूँ।
शुद्ध कर मन धाम छवि मढ़ता गया मैं।
आयु ज्यों-ज्यों बढ़ी श्वासे घट रही हैं।
यात्रा में खाइयाँ भी पट रही हैं।
स्वर्ण पिंजर में विकल मन सारिका है।
उड़ चलेगी एक दिन नभ तारिका है।
पश्चिमी अवरोह में बढ़ता गया मैं॥
सुधा अहलुवालिया

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