न्याय के मंदिर अपावन हो रहे।
स्वार्थ-वश वे अस्मिता निज खो रहे।
व्यर्थ है इंसाफ़ की उम्मीद अब,
सत्य कहने की सजाएँ ढो रहे।
न्याय के चंगुल फँसी है ज़िंदगी,
पक्षधर इंसानियत के रो रहे।
बाग वे सौहार्द का हर काट कर,
बीज नफ़रत के धरा पर वो रहे।
बागवाँ खुद लूटते अपना चमन,
हैफ़ पहरेदार सारे सो रहे।
हो रहा खिलवाड़ अस्मत से यहाँ,
हो गए भक्षक वो रक्षक जो रहे।
बह रही है गंग भ्रष्टाचार की,
'चंद्र' सारे हाथ उसमें धो रहे।
चंद्र पाल सिंह 'चंद्र'

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