दिव्य शक्तियाँ जहाँ ख़ुशी स्वरूप धारतीं।
मुस्करा प्रभा उठी कली-कली खिला रही,
लालिमा विहान की दिगंत में मिला रही,
पंक्तियाँ विहंग की मगन-गगन विहारतीं,
भावना नहीं अलस प्रभात को निखारतीं,
दिव्य शक्तियाँ जहाँ ख़ुशी स्वरूप धारतीं।
हिंद है अखंड आन-मान को सँवारिए,
हार -जीत राग-द्वेष पुण्य से न हारिए,
कष्ट शीत द्वंद्व या बयार से उबारतीं,
रश्मियाँ सदैव भेदभाव को नकारतीं,
दिव्य शक्तियाँ जहाँ ख़ुशी स्वरूप धारतीं।
प्राणवान हो सदा सहर्ष कर्म आप से,
कष्ट व्याधि हो नहीं समाज धर्म आप से,
वृद्ध बाल वृंद से युवान को सँवारतीं,
प्रेम सत्य मार्ग हो कुव्याधि नित्य हारतीं,
दिव्य शक्तियाँ जहाँ ख़ुशी स्वरूप धारतीं।
*** डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी
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