Sunday, 1 August 2021

"रात दिन"

 



सहज से दिल को लेकर रात दिन
चले हैं हम बराबर रात दिन

सबक देती रही ये जिंदगी
हुए हैं सच उजागर रात दिन

उसे ढूंढा नहीं बाहर कभी
कि रब रहता है अंदर रात दिन

असर जारी है अब भी खौफ़ का
दिखे थे ऐसे मंज़र रात दिन

पनाहों में गये हम यादों की
रहा जब वक़्त दूभर रात दिन

समय की साज़िशों में भी यहाँ
मिले रहते परस्पर रात दिन

सनम अब क्या कहें इस हिज़्र में
कटे हैं कैसे अक्सर रात दिन

मदन प्रकाश सिंह

No comments:

Post a Comment

मंगलमयी सृष्टि हो मन-कामना - एक गीत

  हो कृपा की वृष्टि जग पर वामना । मंगलमयी सृष्टि हो मन-कामना॥ नाव मेरी प्रभु फँसी मँझधार है, हाथ में टूटी हुई पतवार है, दूर होता ...