बहा खुशी का उत्स शुष्क पावन पाहन में।
बरसा घन आनन्द आज सखि है सावन में॥
छम-छम छम-छम तरु पल्लव पर छमक रही है,
बूँदों की पायलिया छन-छन छनक रही है।
श्यामल मेघों मध्य श्याम छवि झलक रही है,
अधरों पर मुस्कान चपल द्युति लहक रही है।
बरसी रस की धार मधुर ऋतु मनभावन में।
बरसा घन आनन्द आज सखि है सावन में॥1॥
वन प्रांतर में हर-हर कर पवन झकोर करे,
सखि आनंदित हो नर्तन मन का मोर करे।
घन-घन-घन घहरे मेघ चपल चपला चमके,
नभ में शिव-गौरा लास्य करें कंकण खनके।
सखि! परम आज आनन्द स्रवित मन आँगन में।
बरसा घन आनन्द आज सखि है सावन में॥2॥
आज प्रकृति के झूले में तन-मन ये झूले,
खुशियों की मन पेंग बढ़ा कर नभ को छू ले।
सखी चलो हम इस बादल में गुम हो जायें,
अम्बर से बस मुट्ठी भर खुशियाँ ले आयें।
आशा की बूँदें बरसायें सबके मन में।
बरसा घन आनन्द आज सखि है सावन में॥3॥
कुन्तल श्रीवास्तव.
डोंबिवली, महाराष्ट्र.
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