Sunday 15 August 2021

घर का न घाट का

 



डबल बेड का हो गया, नया आदमी खाट का,
अंधी दौड़ में आदमी, घर का रहा न घाट का,
चीर हरण अब हो रहा, युग-युग के संस्कार का,
अब गुलाम है आदमी, ठाट-बाट के पाट का।

बदला- बदला वक्त है, बदले-बदले लोग,
जीवन में आनन्द का, मतलब है बस भोग,
घर का रहा न घाट का, धन लोभी इन्सान,
धीरे-धीरे खा रहा, धन का उसको रोग।
*** सुशील सरना ***

No comments:

Post a Comment

श्रम पर दोहे

  श्रम ही सबका कर्म है, श्रम ही सबका धर्म। श्रम ही तो समझा रहा, जीवन फल का मर्म।। ग्रीष्म शरद हेमन्त हो, या हो शिशिर व...