डबल बेड का हो गया, नया आदमी खाट का,
अंधी दौड़ में आदमी, घर का रहा न घाट का,
चीर हरण अब हो रहा, युग-युग के संस्कार का,
अब गुलाम है आदमी, ठाट-बाट के पाट का।
बदला- बदला वक्त है, बदले-बदले लोग,
जीवन में आनन्द का, मतलब है बस भोग,
घर का रहा न घाट का, धन लोभी इन्सान,
धीरे-धीरे खा रहा, धन का उसको रोग।
*** सुशील सरना ***
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