हरदम टिमटिम, करता-रहता, मन दमके।
मन के नभ में, आशा तारा, बन चमके॥
सब कहते हैं, दुनिया नश्वर, जग छलना।
पर जो देखूँ , सब सच लगता, मत हँसना।
आसमान-नग, पेड़-नदी-वन, घन बिखरे...
लगे प्रकृति यह, झूठ कभी क्या, सच कहना।
नयी निर्झरी, से कुछ नूतन, आ धमके।
मन के नभ में, आशा तारा, बन चमके॥
कितनी सुन्दर, है यह दुनिया, नैन भरो।
पर्यावरण न, नष्ट करो अब, ध्यान धरो।
ये पर्वत-वन, ये नदियाँ सब, हैं अपनी...
इनकी रक्षा, करना अपना, कर्म करो॥
उम्मीदों के, फल-फूलों से, जग गमके।
मन के नभ में, आशा तारा, बन चमके॥
दुर्धर्ष अचल, तुम शिलाखंड, पर्वत से।
युगों-युगों से, अचल तपस्वी, मूरत से।
पुष्प गुच्छ मृदु, उर में निर्झर, मरुधर से...
देख हृदय की, सहज सरसता, सब नत से॥
करो भरोसा, सदा स्वयं पर, तुम जम के।
मन के नभ में, आशा तारा, बन चमके॥
कुन्तल श्रीवास्तव, मुंबई
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