मदद नहीं माँगी थी
अधिकार माँगे थे हमने।
सपने नहीं माँगे थे
सत्य के आधार माँगे थे हमने।
सुबह-शाम दो रोटी देकर
हमारा पेट भरने की कोशिश मत करना,
काम चाहिए, सम्मान चाहिए,
सत्कार माँगा था हमने।
उजड़ गये या उजाड़ दिये गये,
समझ नहीं आया हमें कभी,
लेकिन इतना तो जानते ही हैं
कि तुम्हारे सच हुए सपनों में,
हमारे ही हाथों ने
हर बार मदद की थी तुम्हारी।
कभी अंगूठा लगाकर,
कभी अंगुली दबाकर,
कभी हाथों को तुम्हारे पास गिरवी रखकर।
गुरूर मत करना
कि गगन को छू रहे हो तुम,
भूलना मत
कि हमारे ही हाथों पर खड़े हो तुम।
हमारी हवाओं की कीमत
तुम्हें चुकानी पड़ेगी।
आज नहीं तो कल
अपनी हक़ीक़त से टकराओगे तुम,
गगन से धरा पर आओगे तुम,
तब ज़रूर मदद करेंगे तुम्हारी।
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*** कविता सूद ***
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