तुम्हारी अकर्मण्यता का / ब्याज चुकाता हूँ मैं !
कारागृह से सागर गृह तक भागता हूँ मैं!
अघ -बक - तृण रूप / पाखण्डों से घिरा
तुम्हारी कामनाओं का पहाड़ उठाता हूँ मैं!
तुम्हारी वासना की बलिवेदी पर
यज्ञपशु बन विलपती
कन्याओं के अश्रु पोंछता हूँ मैं!
लहू और पवि से सना
तुम्हारे अहंकार की उर्वर भूमि में
क्षतविक्षत कराहता हूँ मैं!
तुम्हारी प्रतिज्ञाओं, वरों, और संकल्पों की
धीमी आंच में / प्रति पल जलता हूँ मैं!
तुम्हारे अधिकारों का स्वर बनकर
प्रेम- स्नेह- वात्सल्य की शीतल छांव
निष्ठुर हो छोड़ता हूँ मैं!
तुम्हारी कामुकता- लम्पटता के / कुत्सित यत्नों की चौसर पर
मोहरा बनता हूँ मैं!
और एक दिन तुम्हारी कायरता के दंश को
अपने तलवों में सहता हूँ मैं!
इसीलिए तुम्हारा ईश्वर हूँ मैं!
हाँ, तुम्हारा ब्रह्म हूँ मैं!!
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डॉ.मदन मोहन शर्मा
सवाई माधोपुर, राज.
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