प्राची ने सिंदूर बिखेरा, मनहर बही बयार।
दिग-दिगंत तक फैल रही है, सुषमा अमित अपार।।
लगी हुई है कुंकुम बिंदी, नागरि ऊषा भाल,
अथवा झीने पट से झाँके, अरुणिम आभा गाल,
बंदनवार सजाए किंशुक, जगती करे सिंगार,
दिग-दिगंत तक फैल रही है, सुषमा अमित अपार।
तरल तरंगित कल कल करते, बहते नीर प्रपात,
स्वर्ण रश्मियाँ जगा रही हैं, सुप्त सभी जलजात,
पंख पसारे धायी तितली, भ्रमर करें गुंजार,
दिग-दिगंत तक फैल रही है, सुषमा अमित अपार।
भोर धरा पर उतर रही है, खोले स्वर्णिम केश,
आभा उसकी देख व्योम में, लजा गया राकेश,
मंगल गान कोकिला गाती, आयी अमल बहार,
दिग-दिगंत तक फैल रही है, सुषमा अमित अपार।
चन्द्र पाल सिंह "चन्द्र"
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