रिक्त
मानस कोष्ठ में प्रभु को बिठा श्रृंगार कर लूँ।
प्रेम
पावन अश्रु निर्मल धार मंजुल स्नान वर लूँ।
मौन
वाणी वर्ण लिखती स्वर्ण से नम ओस कण में।
शून्य
आँखों नें जनें जो बिन्दु, मोती
हार क्षण में।
ज्योति
की निर्मल प्रभा में साँवरी छवि को निहारूँ।
पलक दल
को बन्द कर चुपचाप अंतस को बुहारूँ।
चेतना
विह्वल विरस मन नेह संचित ध्यान स्वर लूँ।
आज हो
संवाद प्रभु से पत्र लिखतीं कामनाएँ।
दीप्त
घट-घट ज्योति उसकी पढ़ रहा सब याचनाएँ।
नित्य
भरता झोलियाँ अनमिष करुण रस छलकता है।
क्यों
विरस मन मौन हो संवेदना में दरकता है।
पात्रता
देता वही है पात्र का संज्ञान धर लूँ।
मैं
सभा में थी अकेली आहटों को टोहती थी।
आ गया
है द्वार कोई बिन सुने ही मोहती थी।
भक्त
मन का शुभ्र आँचल स्वच्छ पावन शून्य दर्पण।
लालसा
बस प्रेम की है मन हुआ है आज अर्पण।
नाव है
भवसिन्धु में माँझी लगाता पार, तर
लूँ।
रिक्त
मानस कोष्ठ में प्रभु को बिठा श्रृंगार कर लूँ।
*** सुधा
अहलुवालिया