Sunday, 29 June 2025

"फ़ायदा"

 

फ़ायदा...
एक शब्द जो दिख जाता है
हर रिश्ते की जड़ों में
हर लेन देन की बातों में
और फिर एक सवाल बनकर आता है
इससे मेरा क्या फ़ायदा होगा
मनुष्य ने जब पहली बार काटी होगी
फसल तभी शायद उसने सीखा था
कि मेहनत का भी कोई फ़ायदा होता है
पर वक़्त के साथ
ये शब्द लगने लगा एक छलावा
और हावी होने लगा हमारी भावनाओं पर
और फिर बन गया हर स्नेह
हर संबंध एक सौदा!
ज़माना बिल्कुल बदल गया है अब
हर बार याद दिलाया जाता है कि
आपके लिए
क्या किया था मैंने
ताकि सनद रहे
आप इसकी हद तो देखिए
शिक्षा से लेकर सियासत और
व्यापार से लेकर परिवार
हर जगह इसने अपना मायाजाल
फैला रखा है यहाँ तक कि माँ-बाप की
उम्मीदों में
पलता है
और सपनों को घिस कर बना देता है
सिर्फ़ लक्ष्य
क्या कभी किसी ने पूछा है
कि नुकसान का भी कोई सौंदर्य होता है?
क्या कभी किसी ने मुस्कान में सिर्फ़
सुकून ढूँढा है ?
बिना ये देखे कि उसकी कीमत क्या है?
फ़ायदा…
तुम शायद बेशक ज़रूरी हो
पर संपूर्ण तो बिलकुल भी नहीं
क्योंकि तुम्हारे गणित में रिश्ते तो कभी
समा ही नहीं सकते
तुम नफ़ा-नुकसान की तराजू हो
पर इंसान की आत्मा नहीं
मैं पूछता हूँ—
क्या कविता भी फ़ायदा देख कर
लिखी जाती है?
क्या सूरज उगने से पहले
पैसे की बात करता है!
क्या हवा चलने से पहले अपनी
कीमत तय करती है!
फ़ायदा तुम आज हमारी सभ्यता का
आइना बन चुके हो
पर काश हम उस आइने को तोड़
देख सकें एक ऐसी दुनिया
जहाँ देने का सुख
लेने के फ़ायदे से बड़ा हो।

*** राजेश कुमार सिन्हा

Saturday, 21 June 2025

क्रोध चरित्र - एक घनाक्षरी

मित्र को करे अमित्र, क्रोध का यही चरित्र,
सन्त कहें है विचित्र, स्वयं को बचाइये।
षड्दोषों में है एक, लगे किन्तु थोड़ा नेक,
साथ में रखें विवेक, तभी अपनाइये।
सोचे राम प्रार्थना से, सिन्धु पे बँधेगा पुल,
किन्तु लघु भ्रात बोले, बाण तो उठाइये।
शठ से रहें सचेत, सुने कब उपदेश,
दुष्ट को तो क्रोध से ही, सबक़ सिखाइये।

***सीमा गुप्ता "असीम"

Sunday, 15 June 2025

प्रभात था प्रकाशवान - एक गीत

 

प्रभात था प्रकाशवान सांध्य भी सुरम्य है।
सुकर्म से सुदीप्त काल रात्रि भी सुगम्य है।

विशाल व्योम अंक में छुपा विवान क्लांत हो।
विषाद त्याग सो गया विरक्ति ओढ़ शांत हो।
समिष्टि हेतु सूर्य का प्रवास भी प्रणम्य है।
सुकर्म से सुदीप्त काल रात्रि भी सुगम्य ।

चली सदैव साथ ही पुनीत प्रेम रंजिनी।
ढली उजास त्याग आज संग-संग संगिनी।
पवित्र प्रेम का विशुद्ध रूप भी अगम्य है।
सुकर्म से सुदीप्त काल रात्रि भी सुगम्य।

विवेक से चुना विधान आज शीलवंत ने।
रचा नवीन पृष्ठ एक सृष्टि का अनंत ने।
सुविज्ञ प्राण वान का प्रयाण भी अनम्य है।
सुकर्म से सुदीप्त काल रात्रि भी सुगम्य है।

अर्चना सिंह 'अना'
जयपुर

Sunday, 8 June 2025

एक गीत - अपनी डफली अपना राग - आधार छंद आल्ह

 

शून्य चेतना अंध चाह में, दौड़ मचाती भागमभाग।
सूझ-बूझ से करें न साझा, अपनी डफली अपना राग।

रहे पृथक जो अपने मद में,
हठधर्मी जिसका व्यवसाय।
मतभेदों का मिथक भरोसा,
बस दुनिया कायम हो जाय।

अंत अनंत विधान जगत का, व्यर्थ न हो संयम परित्याग।
सूझ-बूझ से करें न साझा, अपनी डफली अपना राग।

स्वार्थ विचारों और हितों में ,
रखते अपना ही आलाप
नित्य अलग अफसाने जुड़ते,
द्वंद्व-फंद के करते जाप।

दर्द बनी जो वादी अपनी, खेल हुआ जो खूनी फाग।
सूझ-बूझ से करें न साझा, अपनी डफली अपना राग।

मर मिटने पर सभी उतारू,
नष्ट हुए या हुआ विकास
रही तर्क संगत दुविधायें,
युद्ध-शांति का लगा कयास।

नीति धर्म परिवारी जीवन, सदा रहे जीवन बेदाग।
सूझ-बूझ से करें न साझा, अपनी डफली अपना राग।

*** डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी

Saturday, 31 May 2025

ओट धर्म की छिप जा प्यारे - एक गीत

 

हो जायेंगे वारे - न्यारे,
ओट धर्म की छिप जा प्यारे।

चूक गईं तरकीबें सारी,
गांधारी ने पट्टी बाँधी,
कुरुक्षेत्र में योद्धाओं को,
डसने लगी सर्पिणी आँधी।
धर्म मार्ग पर चलते -चलते,
पग - पग पर ही पांडव हारे।
हो जायेंगे..................।

विदुर- भीष्म- राधेय- सुयोधन,
चले शीश पर धर सिंहासन,
सत्य- असत्य, अधर्म -धर्म का,
सार कह गया बलि घर वामन।
अक्षौहिणी चमुओं का कौशल,
कितनी बार मिला हैं गारे।
हो जायेंगे.....................।

धर्म बोध आगम सम्मत पर,
साधु - सन्त भी मौन रहेंगे ,
योग क्षेम वैभव का रखकर,
मीठे स्वर में सूक्ति कहेंगे।
खामोशी की चीख सुनी तो,
समझो मौत आ गई द्वारे।
हो जायेंगे...................।
~~~~~~~~~~~
डॉ. मदन मोहन शर्मा
सवाई माधोपुर ,राज.
गारे = कीचड़।

Sunday, 25 May 2025

असली इबादत - एक ग़ज़ल

 

करें हम दीन दुखियों की मदद सच्ची इबादत है
यही वो नेक जज़्बा है जो इंसानी नफ़ासत है

कभी भूखे को दस्तर-ख़्वान पे खाना खिला देना
ख़ुशी हासिल करोगे जो वही असली इनायत है

जो नंगे तन बदन बच्चे कभी मायूस मिल जाएँ
उन्हें ख़ुशियाँ दिला देना यही सचमुच दियानत है

ग़रीबों की दुआएँ लो उठा कर ख़र्च शादी का
ये प्यारी बेटियाँ सबकी असल में साझी इज़्ज़त है

करम मा'बूद का ’सूरज’ बनाया है हमें लायक
अदल ख़ालिस ख़ुदा करता वही आ’ला अदालत है

*** सूरजपाल सिंह
कुरुक्षेत्र।

Sunday, 18 May 2025

हे मानव निराश मत होना - एक गीत

हे मानव निराश मत होना, जब तक रहे श्वास में श्वास।
दूर क्षितिज पर उभर लालिमा, देती नव जीवन की आस।

जब आलोक तिरोहित हो अरु,
तमसावृत्त दिखे संसार।
धूमिल आशा स्वप्न छीन ले,
मिले न जीने का आधार।
तब भी बीज अंकुरित होता, भीतर होता रहे प्रयास।
हे मानव निराश मत होना, जब तक रहे श्वास में श्वास।

विकट समस्या भले खड़ी हो,
अविचल रहें रखें अवधान।
सदा द्विपक्षी होती घटना,
लक्ष्य साध कर शर सन्धान।
सबसे बड़ा आत्मा का बल, विस्मृत करके करो न ह्रास।
हे मानव निराश मत होना, जब तक रहे श्वास में श्वास।

इच्छाशक्ति अमर संजीवनि,
लाती खींच मृत्यु के पार।
पत्थर में भी फूल खिला दे,
मन में अमित शक्ति भण्डार।
सदा कार्य में बने सहायक, ईश्वर पर अटूट विश्वास।
हे मानव निराश मत होना, जब तक रहे श्वास में श्वास।

*** डॉ. राजकुमारी वर्मा


All r

Sunday, 11 May 2025

साहित्य उदधि - एक गीत

 

बूँद-बूँद रस के विलयन से, यह साहित्य उदधि निखरा है।
ऊँचाई कहती है हँसकर, एक-एक पग सतत धरा है।

सहज साधना और तपस्या, ज्योतित करता है आगत को।
जहाँ स्वयं सिद्धियाँ बिछातीं, अपनी पलके हैं स्वागत को।
सतत साधना हुई प्रतिफलित, सहज शान्ति से हृदय भरा है।
बूँद बूँद रस के विलयन से, यह साहित्य उदधि निखरा है।

नव रस की निधियाँ बिखरी हैं, यति गति छन्द वितान तना है।
छन्द मुक्त भावानुभूति से, छाया उर आनन्द घना है।
गद्य विधान करे आकर्षित, भाषा का सौन्दर्य झरा है।
बूँद बूँद रस के विलयन से, यह साहित्य उदधि निखरा है।

शैशव का मधुरिम पन विहँसा, ली कैशोर्य जनित अँगड़ाई।
साहित्यिक सुषमा से मण्डित, तन ने छटा मनोहर पाई।
सदा जहाँ तरुणाई विलसे, नहीं पहुँचती कभी जरा है।
बूँद बूँद रस के विलयन से, यह साहित्य उदधि निखरा है।

*** सीमा गुप्ता ‘असीम’

Sunday, 4 May 2025

बार-बार पीठ पे न शत्रु के प्रहार हों - एक गीत

घोर अंधकार में निरुद्ध सर्व द्वार हों
बार-बार पीठ पे न शत्रु के प्रहार हों
युद्ध एक मात्र ही विकल्प शेष है सुनों
धर्म स्थापना निमित्त यत्न आर-पार हों

शब्द बाण त्याग दें तीर तेग तान लें
शत्रु वातकेतु चाट स्वाद आज जान लें
बीज नाश हो अराति का यही प्रयास हो
शूरवीर देश के निशंक आज ठान लें
भिन्नता न खिन्नता जुदा नहीं विचार हों
बार-बार पीठ पे न शत्रु के प्रहार हों

रक्त निम्नगा बहे सुजान धैर्य धार लें
रोज़ रोज़ की व्यथा लदान ये उतार लें
नस्ल के भविष्य हेतु आज प्राण त्याग दें
ख़त्म हो हिसाब और क्यूँ ज़रा उधार लें
देश प्रेम भावना जगे चलो निसार हों
बार-बार पीठ पे न शत्रु के प्रहार हों

सत्य जीतता सदा यही यकीन धर्म है
देश के लिए जिएं मरें महान कर्म है
लालसा न स्वर्ग की न मोक्ष चाहना हमें
ग्रन्थ ज्ञान है यही , यही पुराण मर्म है
धर्म युद्ध के लिए दहाड़ ज़ोरदार हों
बार-बार पीठ पे न शत्रु के प्रहार हों

सूरजपाल सिंह
कुरुक्षेत्र।

Sunday, 27 April 2025

आतंक/दहशत/ख़ौफ़ - एक ग़ज़ल

 

कैसी हुई आज वहशत
सकते में आयी निज़ामत

ग़मगीन इंसा हुआ है
हर सिम्त है एक ज़हमत

आतंक फैला रहे जो
उनके दिलों में है नफ़रत

हथियार हाथों में ले कर
लूटें लुटेरे मसर्रत

रखना ज़रा सब्र यारो
हो ख़त्म दिल से न वहदत

इंसानियत का तक़ाज़ा
रहे ज़िन्दगी हर सलामत

रखना ज़रा सब्र 'कुंतल'
बेशक़ बचेगी न दहशत

*** कुन्तल श्रीवास्तव

Sunday, 20 April 2025

दूरस्थांचल के गाँवों का चित्रण - एक गीत

 

भारत गाँवों में बसता था,
हुई पुरानी यारो बात।
कभी न डूबा रवि गाँवों में,
छायी है तँह काली रात।।
भारत गाँवों में...
जात-पात का चले बवंडर,
होय भावना लहूलुहान।
वात घृणा की साँय-साँय है,
गाँव हो रहे नित सुनसान।
भाग रहे सब गाँव छोड़ कर,
गाँव न खड़कें सूखे पात।
भारत गाँवों में...
फसल उगाती नहीं धरा भी,
प्रकृति ने भी छोड़ा साथ।
भूख मारती चाबुक रह रह,
तंग हुए हैं सबके हाथ।
नहीं सहारा कुछ गावों में,
बहुत बुरे हैं हर हालात।
भारत गाँवों में....
रोज़गार गाँवों में कम हैं,
मज़दूरी पर भी बड़ा सवाल।
एक शहर ही बड़ा आसरा,
अच्छे नहीं शहर के हाल।
इनी - गिनी मज़दूरी पाते,
खाँय अवध नित गीला भात।
भारत गाँवों में...

*** अवधूत कुमार राठौर 'अवध'

Sunday, 13 April 2025

मुम्बई की एक शाम

 

एक शाम
मुम्बई महानगर की
दिन की आपाधापी
थक कर बैठने की प्रक्रिया में है,
पर अब शुरू होती है
घर वापसी की जद्दो जहद,
लोकल ट्रेन में घुसने की होड़,
बसों के पादान पर खड़े होने की
कवायद/तेज़ क़दमों से मेट्रो स्टेशन की ओर
बढ़ता हुज़ूम
मानों अभी जीवन शुरू हुआ हो,
सबकी आँखों में एक अदद चाहत/काश!
हाथों में लेकर चाय का कप/घर के सोफे पे बैठ
धूप का आख़िरी रंग दिख जाए,
पर ऐसा होता कहाँ है।
सूरज अपने तपते चेहरे पर
सिन्दूरी आँचल रख कर विदा लेते दिख
जाता है यदा कदा,
लोकल की विंडो सीट से
वह भी किसी लॉटरी लगने से कम नहीं होता।
हर शाम ही होता है इंतज़ार
फ्राई डे का/शनिवार की छुट्टी का
यही उम्मीद देती है उर्जा
कल सुबह फिर निकलने की
कंक्रीट के जंगल में जलते बल्ब
जुगनुओं का एहसास कराते हैं,
जैसे वे भी जानते हों
कि रात से पहले कुछ कह लेना ज़रूरी है
तभी तो चल पाता है जीवन/इसी दिनचर्या में
हर रोज़ आती है नियम से शाम
क्या आरंभ क्या अंत
बस एक पल
जहाँ समय थमता नहीं,
पर रुक कर मुस्कुरा ज़रूर देता है
और बखूबी समझ लेता है
शब्दों के बीच की ख़ामोशी को
जिसमें छिपा होता है।
एक पूरी कविता का अर्थ
जिसे हम और आप जीवन का
फलसफा कह सकते हैं।

*** राजेश कुमार सिन्हा

Sunday, 6 April 2025

छोड़ कर जाना नहीं प्रिय - एक गीत

 

छोड़ कर जाना नहीं प्रिय साथ मेरे वास कर लो।
पूर्ण होती जा रही मन कामना तनु प्यास भर लो।

मैं धरा अंबर तुम्ही हो लाज मेरी ढाँप लेना।
मैं रहूँ सम्पन्न तू नम रैन अरुणिम ताप देना।
प्राण मेरे हैं तुम्हारी चेतना के आवरण में।
मैं सु्वासित पुष्प सी तू भौर मंजरि आभरण में।
चाँदनी मैं तू समुंदर विकल नभ तक लास भर लो।

तू गया जो प्राण मेरे साथ तेरे हो लिए प्रिय।
आहटों में पत्र सूखे बोलते स्वर खो लिए प्रिय।
हो ठहर तेरी अयन में साँझ का पंथी न बन यों।
आगलित मन भीग ले बस मत विरह रस धार जन यों।
जीवनी के कटु समर में साथ मेरे रास कर लो।

गूँज प्रेमिल फिर पुकारे है मधुर स्मृति मन गगन में।
हो कहीं बेलक जलद फिर अश्रु बोएंगे लगन में।
गीत बन आरोह औ अवरोह की लहरें डुबातीं।
नेह की मृदु पकड़ में आनंद की ठहरें लुभातीं।
इन्द्रधनु के रंग जीवन में सजें नित न्यास कर लो।
छोड़ कर जाना नहीं प्रिय साथ मेरे वास कर लो॥

*** सुधा अहलुवालिया

Sunday, 30 March 2025

जीवन है संगीत - एक गीत

 

शाश्वत गुंजित प्रणवाक्षर का, सतत् चल रहा गीत।
उतर मौन में सुनो ध्यान से, जीवन है संगीत।
चले समीरण सर-सर सर-सर, गाती है निर्भ्रांत।
जल सरिता का कल-कल कल-कल, उच्चारे अश्रांत।
मेघ गरजते बजे नगाड़े, दामिनि दीप्ति अपार।
सप्त स्वरों में करे भारती, झंकृत वीणा तार।
यही अनादिकाल से प्रचलित, होती आई रीत।
उतर मौन में सुनो ध्यान से, जीवन है संगीत।
धरा-चन्द्र रवि-ग्रह उपग्रह सब, सतत् करें संवाद।
सकल विश्व गुंजायमान है, गूँजे अनहद नाद।
मादकता रस घोल रही है, गुंजित कोकिल कूक।
कलरव कर संगीत सुनाएं, नहीं विहग भी मूक।
ब्रह्मानंद निमग्न योगिजन, स्तुतिरत प्रभु प्रीत।
उतर मौन में सुनो ध्यान से, जीवन है संगीत।
अलिगण गुंजन कमल प्रस्फुटन, कर नीरवता भंग।
प्राणिजगत में कोलाहल है, चढ़ा सभी पर रंग।
कर विस्मृत दुख द्वेष ईर्ष्या, मानव तू भी नाच।
यह जीवन अनमोल न दुख की, लगे कही भी आँच।
संकल्पित कर्तव्यशील जन, सदा मनाए जीत।
उतर मौन में सुनो ध्यान से जीवन है संगीत।
डॉ राजकुमारी वर्मा

"फ़ायदा"

  फ़ायदा... एक शब्द जो दिख जाता है हर रिश्ते की जड़ों में हर लेन देन की बातों में और फिर एक सवाल बनकर आता है इससे मेरा क्या फ़ायदा होगा मनुष्य...