Sunday, 28 September 2025

माता का उद्घोष - एक गीत

 

आ गयी नवरात्रि लेकर, भक्ति का भंडार री।
कर रही मानव हृदय में, शक्ति का संचार री॥

है प्रवाहित भक्ति गङ्गा, शिव-शिवा उद्घोष से,
आज गुंजित गगन है यह , विजय के जयघोष से,
सकल आनन हैं प्रफुल्लित,अमित हिय परितोष से,
स्वागतम् नवरात्रि का है, अमिय मृद मधुकोष से,
ढोल और मृदङ्ग रव से, गूँजते कान्तार री।
कर रही मानव हृदय में, शक्ति का संचार री॥1॥

हास्य रस शृंगार पूरित, करुण रस है मातृ में,
वीर रौद्र विभत्स अद्भुत, शांत रस जगधातृ में,
शत्रु संहारक भयानक, आकृति कालरात्रि में,
नवरसों का हृदय में हो, संचरण नवरात्रि में,
दानव दलन की कथा में, रूप हर साकार री।
कर रही मानव हृदय में, शक्ति का संचार री॥2॥

शरद की नवरात्रि अनुपम, प्रकृति से शोभन सजी,
द्रुम लताओं से लदे तरु, शाख पुष्पों से गजी,
आज माँ घर आ रही हैं, व्याप्त नव उल्लास है,
नाचते तन गा रहे मन, नेत्र में नव आस है,
दीप तारों के जला कर, कौमुदी तैयार री।
कर रही मानव हृदय में, शक्ति का संचार री॥3॥

*** कुन्तल श्रीवास्तव

Sunday, 21 September 2025

मौत की बारात निकली, ज़िंदगी हैरान है।

 

मौत की बारात निकली,
ज़िंदगी हैरान है।
घोंसला फिर से किसी का,
बन गया शमशान है।।

उड़ नहीं पाए पखेरू,
पंख उनके जल गए।
उरगारि समझे थे जिसे,
श्येन सारे छल गए।।

आपदा का बाम लेकर,
आ गया शैतान है।

पूछते हैं हाल लेकिन,
बोलने पर वर्जना।
कौन सुनता है यहाँ पर,
मौन की यह गर्जना।।

दर्द का छाया कुहासा,
मन-गली सुनसान है।

फिर से किसी धृतराष्ट्र की,
मर गई संवेदना।
नेपथ्य से वह ध्वंश की,
भर रहा उत्तेजना।।

लुट रहा संसार मेरा,
सो रहा दरबान है।
मौत की बारात निकली,
ज़िंदगी हैरान है।।
चंद्र पाल सिंह 'चंद्र'

Sunday, 14 September 2025

रजत चंद्रिका - एक गीत

 

तिमिर तिरोहित करके जग का, तमस मानसिक हरता।
रजत चंद्रिका में अवगाहन, पूर्ण चंद्रमा करता।

किरण हिमानी औषधि के सम, तन की पीड़ा हरती।
जलधि और उर करे प्रफुल्लित, चन्द्र चंद्रिका झरती।
शिशुओं का मातुल क्रीडक बन, रूप मनोहर धरता।
रजत चंद्रिका में अवगाहन, पूर्ण चंद्रमा करता।

सर्व धर्म सम भाव मानता, तुझे पर्व सब प्यारे।
ईद चौथ करवा की हो या, व्रती मनुज उद्धारे।
तुझे देखकर निराहार जन, विहँस उदर को भरता।
रजत चंद्रिका में अवगाहन, पूर्ण चंद्रमा करता।

अविभाजित ब्रह्माण्ड सकल में, दिनकर निशिकर तारे।
सबका ही पूरा महत्व है, नहीं जगत से न्यारे।
पोषित करते रहें धरा को, बहुविधि अमृत झरता।
रजत चंद्रिका में अवगाहन, पूर्ण चंद्रमा करता।

*** डॉ. राजकुमारी वर्मा

Sunday, 7 September 2025

मेरे मीत - एक गीत

 

अजनबी! कुछ तो रहा है आपसे सम्बन्ध मेरा।
बस रहे जन्मान्तरों से आप हिय में मीत बनकर।

रात्रि गहराती निखरती चाँदनी जब जब धरा पर।
छेड़ती है भारती संगीत वीणा हाथ में धर।
उस अयाचित प्रेम निर्झर में बरसते गीत बनकर।
बस रहे जन्मान्तरों से आप हिय में मीत बनकर।

हंस बनकर हो विचरते इस हृदय के मानसर में।
ढूँढती हूँ आपकी छवि झिलमिली लघुतम लहर में।
वेदना की हर कसक में आप आए प्रीत बनकर।
बस रहे जन्मान्तरों से आप हिय में मीत बनकर।

बन्द नयनों में बसे हो आप ही आराध्य मेरे।
रंग भर जाते मिलन के ओ परम शाश्वत चितेरे।
अजनबी! कुछ तो बता दो हँस रहे क्यों जीत बनकर।
बस रहे जन्मान्तरों से आप हिय में मीत बनकर।

*** सीमा गुप्ता "असीम"

Sunday, 31 August 2025

दुर्मिल सवैया - गणपति वंदना

 

सिर शोभित हेम किरीट गजानन मूषक वाहन प्रेम करे।

उपवीत मनोहर कंध पड़ा अरु मोदक के कर थाल धरे।

फल में प्रिय जामुन कैथ लगें उर पाटल फूलन हार परे।

मुख पान सुपारि सुलौंग चवें सुख दायक हो सब क्लेश हरे।


जड़ता उर की प्रभु नष्ट करो प्रथमेश विराजित हो मन में।

हर लो तम नाथ घना जग का सुख शांति भरो सबके तन में।

प्रभु मंगल पूर्ण बयार चले जग के हर शोभित आंगन में।

कविता सविता सम भोर लिए थिरके नव ज्योति तभी वन में।


अर्चना बाजपेयी

हरदोई उत्तर प्रदेश।


Sunday, 24 August 2025

रिश्ता क्या होता है

 

रिश्तों का आधार, प्रीति विश्वास समर्पण।
लोभ दंभ का त्याग, स्वच्छ हो मन का दर्पण।।
अपनों का सायुज्य, टूटने कभी न देता।
देकर नित नव लक्ष्य, शिथिलता सब हर लेता।।

किसी का साथ निभता जब नजर में मान होता है।
नजरिया बिन मिले रिश्ता बड़ा बेजान होता है।
भला सामान गहने दे सके खुशियाँ किसी को कब-
दिलों की हो सगाई तब सफर आसान होता है।

*** मीतू कानोड़िया

Sunday, 17 August 2025

मन से कटुता दूर हटाएँ - एक गीत

 

मतभेदों को भूल-भालकर, आजादी का जश्न मनाएँ।
राग द्वेष को त्याग यहाँ पर, मन से कटुता दूर हटाएँ।।

मन-मुटाव का कारण खोजें, मन की गलियों के उजियारे।
हो चाहे मतभेद भिन्नता , भारत माँ के हम सब प्यारे।।
रहे एकता सबके दिल में, मनभेद नहीं मन आने पाएँ ।
राग-द्वेष को त्याग यहाँ पर, मन से कटुता दूर हटाएँ।।

जाति-धर्म हो पृथक भले ही, रहे अखंडित देश हमारा।
सर्व-धर्म सद्भाव यहाँ का, अखिल विश्व में सबसे न्यारा।।
मन प्रसन्न हो तन उत्फुल्लित, प्यार हृदय में हम बरसाएँ।
राग द्वेष को त्याग यहाँ पर, मन से कटुता दूर हटाएँ।।

अभिव्यक्ति की यहाँ स्वतंत्रता, संविधान ने दी जनता को ।
स्वागत सभी विचारों का हो, कटुता कभी नहीं धरता को।।
ऊँच-नीच का भेद मिटाकर, दिल में करुणा भाव जगाएँ।
राग द्वेष को त्याग यहाँ पर, मन से कटुता दूर हटाएँ।।

*** लक्ष्मण लड़ीवाला 'रामानुज'

Sunday, 10 August 2025

वर्तमान विश्व पर प्रासंगिक मुक्तक

 

गोला औ बारूद के, भरे पड़े भंडार,
देखो समझो साथियो, यही मुख्य व्यापार,
बच पाए दुनिया अगर, इनको कर दें नष्ट-
मिल बैठें सब लोग अब, करना यही विचार।।
हठधर्मी कुछ देश हैं, देना उनको दंड,
बहुत ज़रूरी हो गया, तोड़ें सकल घमंंड,
अहम् भाव वे पालते, बने विश्व में रोग-
करनी होगी अब हमें, अर्जित शक्ति प्रचंड।।

दुनिया डूबी जा रही, इसे बचाए कौन,
नेताओं से पूछ लो, रह जाते सब मौन,
कई देश बैठे हुए, कायरता को ओढ़-
सीधी करनी है हमें, चलती उलटी पौन।।
एटम बम गोदाम में, धमकी देते रोज़,
दोष और को दे रहे, करें न खुद की खोज,
क्यों विनाश पर है तुला, दुनिया का नेतृत्व-
दिन-दिन घटता जा रहा, सकल विश्व का ओज।।

Sunday, 3 August 2025

कहीं धसकते शैल-शिखर हैं, कहीं डूबते कूल-कछार - एक गीत

 

छाया तम अम्बर के ऊपर, बरस रहा प्रचंड जलधार।
कहीं धसकते शैल-शिखर हैं, कहीं डूबते कूल-कछार॥
🌸
गिरे गगन से बिजली पग-पग, कहीं फट रहे काले मेघ।
हरे-भरे गिर वृक्ष अचानक, रहे हृदय धरती का वेध॥
बाँधों की टूटी दीवारें, जलप्रलय करता हुंकार।
हहर-हहर नदियाँ नद-नाले, विकट कर रहे हैं संहार॥
कहीं धसकते शैल-शिखर हैं, कहीं डूबते कूल-कछार...
🌸
काट-काट पर्वत-वृक्षों को, किया प्रकृति से ख़ुद को दूर।
मचा रही विध्वंस नदी अब, अब तो हुई प्रकृति भी क्रूर॥
सैलाबों ने निगली बस्ती, मचा चतुर्दिक् हाहाकार।
आया खण्ड-प्रलय पृथ्वी पर, दिल दहलाने अबकी बार॥
कहीं धसकते शैल-शिखर हैं, कहीं डूबते कूल-कछार...
🌸
डूब गये घर-आँगन बस्ती, डूबे सभी खेत-खलिहान।
जीवनदायिनी सरि हर रही, आज बाढ़ से सबके प्रान॥
शस्य श्यामला रुदन कर रही, खो कर वैभव का संसार।
कहाँ गये सावन के झूले, कहाँ हुई गुम मृदु बौछार॥
कहीं धसकते शैल-शिखर हैं, कहीं डूबते कूल-कछार...
🌸
*** कुन्तल श्रीवास्तव

Sunday, 27 July 2025

बारिश में - एक ग़ज़ल


आज रोया जो सुबह उठ के शहर बारिश में

याद आया है टपकता हुआ घर बारिश में


जोर से बरसी घटा झूम उठा गाँव मेरा

डर के छत पर है चढ़ा तेरा नगर बारिश में


खेत खलिहान तलैया हैं खड़े सज धज के

नालियाँ घर में घुसी बन के नहर बारिश में


मोर नाचे हैं मुंडेरों पे जो गरजे बाद‌ल

भूख करती है सड़क रोक सफ़र बारिश में


भीग कर हमने लिया खूब ठिठुरने का मजा

बेवजह तुमको है बीमारी का डर बारिश में


रूप निरखे हैं तलाबों में निखर के कुदरत

तू ने देखी है तबाही की खबर बारिश में


बाढ़ से सच में बहुत ज्यादा है नुकसान इधर

लाभ लेकर भी है तू सूखा उधर बारिश में

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डॉ. मदन मोहन शर्मा

सवाई माधोपुर, राज.


Sunday, 20 July 2025

"मैं" थोड़ा कम और "तुम" थोड़ा ज़्यादा - एक कविता

 

मुझे नहीं लगता
इबादत मंदिरों की आरतियों
मस्जिद की अज़ानों या
गिरजाघरों के घंटों में होती है
हाँ/मुझे लगता है इबादत
उस माँ के हाथों में होती है
जो बिना थके रोटियाँ बेलती है
उस पिता की थकी-थकी आँखों में होती है
जो बेटे की फीस जमा करने की
ज़द्दो-ज़हद में रात दिन
एक कर देता है
यह निहित स्वार्थ से परे उस प्रेम में होती है
जो हर रोज़ दुआ करता है
किसी के हमेशा ख़ुश रहने की
यह उस बच्चे की मुस्कान में होती है
जो टूटी हुई खिलौने वाली गाड़ी से
पूरी दुनिया की सैर कर लेता है
यह किसी का दुख बाँटने में होती है
किसी का आँसू पोंछने में होती है
यह दिया जलाने में नहीं
दिया बनने में होती है
जलना, तपना, पिघलना
और फिर रौशनी देना
यही तो इबादत है
यह बेशक रवायतों से परे
धर्म की ज़ंजीरों से आज़ाद
हुआ करती है
जब हम किसी रोते को गले लगाते हैं
बिना नाम/जाति या मज़हब पूछे
यह उस ख़ामोश रात में भी होती है
जहाँ एक माँ अपने बीमार बच्चे के माथे पर
ठंडे पानी की पट्टी तब तक रखती है
जब तक बुखार कम नहीं हो जाता
यह वो नहीं जो दिखती है
यह वो है जो भीतर जलती है
सच की लौ में/प्रेम के दावानल में
अजर और अमर
आत्मा की पीड़ा में
यह केवल शब्द नहीं
एक स्थिति है जहाँ इंसान
"मैं" थोड़ा कम और
"तुम" थोड़ा ज़्यादा हो जाता है।

*** राजेश कुमार सिन्हा

माता का उद्घोष - एक गीत

  आ गयी नवरात्रि लेकर, भक्ति का भंडार री। कर रही मानव हृदय में, शक्ति का संचार री॥ है प्रवाहित भक्ति गङ्गा, शिव-शिवा उद्घोष से, आज गुंजित गग...