Saturday, 27 December 2025

सूरज का संदेश

 

बेसुध करती रात सयानी, नित्य सँवारे रवि-स्यंदन है।
हार न जाना कर्म पथिक तुम, सुख-दुख सत्य चिरंतन है।

मत घबराना देख त्रासदी, उम्मीदों से जोड़ो नाता।
दर्द हमें अपनाना होगा, मधुर उमंगे भर दे दाता।
दिशा मनोहर प्राची कहती, आओ मेरा आलिंगन है।
बेसुध करती रात सयानी, नित्य सँवारे रवि-स्यंदन है।

मौन नहीं दीर्घा सपनों की, साँझ सँवारे नित कोलाहल।
यादों के संचित वैभव को, खोल रहा है मन ये चंचल।
नहीं निराशा कुछ भी देती, करना हमको नित मंथन है।
बेसुध करती रात सयानी, नित्य सँवारे रवि-स्यंदन है।

अस्थिरता की बेड़ी पग में, घूम रहा है धुंध निरंतर।
पीड़ा पैठ गयी पलकों में उसे सँजोये रत अभ्यंतर।
बाँध रही श्वांसों के बंधन, ”लता” जगाये उर धड़कन है।
बेसुध करती रात सयानी, नित्य सँवारे रवि-स्यंदन है।
*** डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी

Sunday, 21 December 2025

धुंध ने डाला डेरा - एक गीत

 

ठिठुर रही है सृष्टि हमारी, छाया हुआ अँधेरा।
लिपट न पायी धूप धरा से, धुंध ने डाला डेरा॥

हिम-कण बनकर शूल बरसते, मौन हुई है वाणी।
नदी-सरोवर बर्फ बन रहे, विकल हुआ है पानी।
सन्नाटे ने कसकर जकड़ा, दुःखों ने मुँह न फेरा॥
लिपट न पायी धूप धरा से, धुंध ने डाला डेरा॥

महलों में तो शाल-दुशाले, वे सुख-नींद मगन हैं॥
निर्धन की कुटिया में देखो, कैसे बीत रहे क्षण हैं।
फुटपाथों पर सिसक रहा है, जिसका रैन-बसेरा॥
लिपट न पायी धूप धरा से, धुंध ने डाला डेरा॥

नश्वर है यह काल-खण्ड भी, धीरज तुम मत खोना।
ऋतुओं का यह चक्र चल रहा, चकित नहीं तुम होना।
लौटेंगी स्वर्णिम किरणें फिर, होगा नया सवेरा॥
लिपट न पायी धूप धरा से, धुंध ने डाला डेरा॥

*** आचार्य प्रताप 

Sunday, 14 December 2025

पावन/पवित्र - कुण्डलिया छंद

 

(1)
पावन रखो शरीर मन, पावनता ज्यों क्षीर।
पावनता प्रभु की सखी, पावन गंगा नीर।
पावन गंगा नीर, तरंगित सागर लहरें।
पावन हैं हिम श्रृंग, मेघ जल लाकर ठहरें।
मन में हो न विकार, दया बरसे ज्यों सावन।
प्रभु का हो सान्निध्य, रहे जब तन-मन पावन।
(2)
वेद ऋचाएँ मंत्र शुचि, ओमकार उच्चार।
कपट रहित मन स्वच्छ है, शुचि जीवन आधार।
शुचि जीवन आधार, सत्य सौंदर्य भरा है।
निष्कलंक निर्दोष, हृदय में प्रेम खरा है।
दिव्य लगे संसार, कर्म में शुचिता लाएँ
पावन है ब्रह्माण्ड, कह रहीं वेद ऋचाएँ
*** डॉ. राजकुमारी वर्मा

Sunday, 7 December 2025

जीतेगी सारा संसार - एक गीत

 

कभी आग की बलिवेदी पर, कभी कोख में डाला मार।
युग-युग से जलते अंतर में, कितनी लपटों की भरमार।

रही उपेक्षित जनम-जनम से, कभी न पाया लाड़-दुलार।
बोझ समझ कर जिसे पालते, कुटिल भर्त्सना दुर्व्यवहार।
अब अवसर* आया बेटी का, कभी न मानेगी ये हार।
सजग परिश्रमी लगनशील है, लिए नवल संकल्प विचार।

कोमल कांत कलेवर में भी, निहित भवानी- शक्ति अपार।
कर्तव्यों में बंधी है लेकिन, पाने को अपना अधिकार।
सुगढ़ सुशिक्षिता मृदु कलिका सी, महकाती है घर औ' द्वार।
जागृति का अभिषेक किए है, जीतेगी सारा संसार।

*** कान्ति शुक्ला

Sunday, 30 November 2025

सुख-दुख - गीत

 

द्वन्द्व जीवन में बहुत सुख-दुख निराशा-आस के।
किन्तु धागे हैं सुदृढ़ बाँधे मुझे विश्वास के।

क्या करेगी द्वैत धारा हाथ में तव हाथ है।
हर्ष में हर दुःख में साथी तुम्हारा साथ है।
दे रहा यद्यपि समय यह घात पर नित घात है।
प्रेम प्रिय का दे रहा पर हर व्यथा को मात है।
नैन में हैं स्वप्न अब तक प्रिय तुम्हारे रास के।
द्वन्द्व जीवन में बहुत सुख-दुख निराशा-आस के।

राह जीवन की अबूझी क्या पता जाना कहाँ।
प्रिय ! कदम तेरे जहाँ मेरा ठिकाना है वहाँ।
जिन्दगी की वीथिका मुझको नहीं उलझा सके।
कब भला मेरे कदम तुम तक पहुँचने में थके।
स्वप्न देखे हैं सदा प्रिय के शुभोज्ज्वल हास के।
द्वन्द्व जीवन में बहुत सुख-दुख निराशा-आस के।

एक पल को छवि हृदय से दूर हो सकती नहीं।
चाँद की शुभ ज्योत्सना में कालिमा रहती नहीं।
घोर झंझा में तरंगित हो रहा मेरा हृदय।
है चतुर्दिक आज मेरे प्रेय का मधुमय वलय।
अब विरह में हैं प्रवाहित स्वर मिलन उच्छ्वास के।
द्वन्द्व जीवन में बहुत सुख-दुख निराशा-आस के।

*** सीमा गुप्ता "असीम"

Sunday, 23 November 2025

पुस्तक संसार - एक गीत

 

ज्ञान का भंडार संचित पुस्तकें आधार हैं,
पुस्तकें ही आज जग में प्रेरणा संस्कार हैं।

पुस्तकों से प्यार करते आदमी गुणवान हैं,
पुस्तकों से ही बढ़े हैं चिंतकों के ज्ञान हैं,
चिंतकों के अनुभवों के पुस्तकों में सार हैं।
पुस्तकें ही आज जग में प्रेरणा संस्कार हैं।।

जो किताबों को सजाते किन्तु पढ़ पाते नहीं,
वे नदी के पास रहकर तृप्त जग पाते नहीं,
पुस्तकों से प्रेम करते मानते संसार हैं।
ज्ञान के भंडार पे बैठे हुए अधिकार हैं।।

सभ्यता के द्वार सारे पुस्तकें ही खोलती,
देश की गौरव कथायें पुस्तकें ही बोलती,
शोध करने पोथियों में संग्रहित भंडार हैं।
है सुरक्षित शोध करने, खूब ग्रंथागार हैं।।

*** लक्ष्मण लड़ीवाला 'रामानुज'

Sunday, 16 November 2025

श्वास के सोपान को चढ़ता गया मैं - एक गीत

 

श्वास के सोपान को चढ़ता गया मैं।
आस औ विश्वास को गढ़ता गया मैं।

जन्म से ले मृत्यु तक जीवन नहर है।
ठाँव हैं प्रति पलों के क्षण भर ठहर है।
ज्योति आभा देह में चेतन सुवासित।
रेख है प्रारब्ध की अंजुल सुशासित।
समय की गति को निरत पढ़ता गया मैं।

मील के पत्थर बहुत थे यात्रा में।
सुख मिले दुख भी बहुत थे मात्रा में।
कर्म की कुछ शिलाओं पर नाम मेरा।
धर्म के संसार में था धाम मेरा।
रात-दिन प्रभु नाम को कढ़ता गया मैं।

नाव जीवन की चली भवसिन्धु में है।
आयु का परिणाम संचित बिन्दु में है।
धर्म की पतवार थामें मैं चला हूँ।
ईश करुणा में, उसीकी मैं कला हूँ।
शुद्ध कर मन धाम छवि मढ़ता गया मैं।

आयु ज्यों-ज्यों बढ़ी श्वासे घट रही हैं।
यात्रा में खाइयाँ भी पट रही हैं।
स्वर्ण पिंजर में विकल मन सारिका है।
उड़ चलेगी एक दिन नभ तारिका है।
पश्चिमी अवरोह में बढ़ता गया मैं॥

सुधा अहलुवालिया

Sunday, 9 November 2025

मंगलमयी सृष्टि हो मन-कामना - एक गीत

 

हो कृपा की वृष्टि जग पर वामना
मंगलमयी सृष्टि हो मन-कामना॥

नाव मेरी प्रभु फँसी मँझधार है,
हाथ में टूटी हुई पतवार है,
दूर होता जा रहा संसार है,
अब न जीवन का यहाँ आधार है,

हाथ मेरा तुम सदा प्रभु थामना।
मंगलमयी सृष्टि हो मन-कामना॥1॥

हर तरफ़ कैसा अँधेरा छा रहा,
अब कहीं कुछ भी नहीं दिख पा रहा,
धुन्ध में जीवन बिखरता जा रहा,
इस धुएँ से दम निकलता जा रहा,

प्रभु! अँधेरों से न अब हो सामना।
मंगलमयी सृष्टि हो मन-कामना॥2॥

सत्य शिव की राह यह छूटे नहीं,
कल्पना की डोर प्रभु टूटे नहीं,
नव सृजन का स्वप्न हर साकार हो,
सत्य शिव सुन्दर जगत आधार हो,

साथ देना तुम नहीं करना मना।
मंगलमयी सृष्टि हो मन-कामना॥3॥

*** कुन्तल श्रीवास्तव

Saturday, 1 November 2025

न्याय के मंदिर अपावन हो रहे

 

न्याय के मंदिर अपावन हो रहे।
स्वार्थ-वश वे अस्मिता निज खो रहे।

व्यर्थ है इंसाफ़ की उम्मीद अब,
सत्य कहने की सजाएँ ढो रहे।

न्याय के चंगुल फँसी है ज़िंदगी,
पक्षधर इंसानियत के रो रहे।

बाग वे सौहार्द का हर काट कर,
बीज नफ़रत के धरा पर वो रहे।
बागवाँ खुद लूटते अपना चमन,
हैफ़ पहरेदार सारे सो रहे।

हो रहा खिलवाड़ अस्मत से यहाँ,
हो गए भक्षक वो रक्षक जो रहे।

बह रही है गंग भ्रष्टाचार की,
'चंद्र' सारे हाथ उसमें धो रहे।

चंद्र पाल सिंह 'चंद्र'

Sunday, 26 October 2025

प्रकाश पुंज - एक गीत

 

प्रकाश पुंज सूर्य से प्रदीप्त आभ पाइए।
घने तिमिस्र को मिटा सुरम्य पंथ लाइए।
उजास ज्ञान विश्व में स्व बाँटता रहा सदा।
सुतीक्ष्ण बुद्धि, अंध-पंथ काटता रहा यदा।
प्रभात रश्मि वाण साध लक्ष्य भेद जाइए।
प्रकाश पुंज सूर्य से प्रदीप्त आभ पाइए।
स्व अश्व रास साधना रथी अमान चेतना।
सुस्वर्ण आभ भाल-बिन्दु अंबरांत भेदना।
पतंग रूप शुभ्र भाव में दिगंत गाइए।
प्रकाश पुंज सूर्य से प्रदीप्त आभ पाइए।
प्रगाढ़ सप्त रंग राग अंग-अंग में सजे।
रचे अनंत चित्र माल पश्चिमी दिशा रजे।
भरें स्वभक्ति भाव में अथाह शक्ति छाइए।
प्रकाश पुंज सूर्य से प्रदीप्त आभ पाइए।
छुपे कहीं जरा प्रभा, मयंक आरसी सजे।
कला विधान नित्य ही नई सुयामिनी रजे।
प्रमाण पत्र बाँच पद्म बावली खिलाइए।
प्रकाश पुंज सूर्य से प्रदीप्त आभ पाइए॥
अंबरांत / क्षितिज
सुधा अहलुवालिया

सूरज का संदेश

  बेसुध करती रात सयानी, नित्य सँवारे रवि-स्यंदन है। हार न जाना कर्म पथिक तुम, सुख-दुख सत्य चिरंतन है। मत घबराना देख त्रासदी, उम्मीदों से ज...