Sunday, 6 April 2025

छोड़ कर जाना नहीं प्रिय - एक गीत

 

छोड़ कर जाना नहीं प्रिय साथ मेरे वास कर लो।
पूर्ण होती जा रही मन कामना तनु प्यास भर लो।

मैं धरा अंबर तुम्ही हो लाज मेरी ढाँप लेना।
मैं रहूँ सम्पन्न तू नम रैन अरुणिम ताप देना।
प्राण मेरे हैं तुम्हारी चेतना के आवरण में।
मैं सु्वासित पुष्प सी तू भौर मंजरि आभरण में।
चाँदनी मैं तू समुंदर विकल नभ तक लास भर लो।

तू गया जो प्राण मेरे साथ तेरे हो लिए प्रिय।
आहटों में पत्र सूखे बोलते स्वर खो लिए प्रिय।
हो ठहर तेरी अयन में साँझ का पंथी न बन यों।
आगलित मन भीग ले बस मत विरह रस धार जन यों।
जीवनी के कटु समर में साथ मेरे रास कर लो।

गूँज प्रेमिल फिर पुकारे है मधुर स्मृति मन गगन में।
हो कहीं बेलक जलद फिर अश्रु बोएंगे लगन में।
गीत बन आरोह औ अवरोह की लहरें डुबातीं।
नेह की मृदु पकड़ में आनंद की ठहरें लुभातीं।
इन्द्रधनु के रंग जीवन में सजें नित न्यास कर लो।
छोड़ कर जाना नहीं प्रिय साथ मेरे वास कर लो॥

*** सुधा अहलुवालिया

Sunday, 30 March 2025

जीवन है संगीत - एक गीत

 

शाश्वत गुंजित प्रणवाक्षर का, सतत् चल रहा गीत।
उतर मौन में सुनो ध्यान से, जीवन है संगीत।
चले समीरण सर-सर सर-सर, गाती है निर्भ्रांत।
जल सरिता का कल-कल कल-कल, उच्चारे अश्रांत।
मेघ गरजते बजे नगाड़े, दामिनि दीप्ति अपार।
सप्त स्वरों में करे भारती, झंकृत वीणा तार।
यही अनादिकाल से प्रचलित, होती आई रीत।
उतर मौन में सुनो ध्यान से, जीवन है संगीत।
धरा-चन्द्र रवि-ग्रह उपग्रह सब, सतत् करें संवाद।
सकल विश्व गुंजायमान है, गूँजे अनहद नाद।
मादकता रस घोल रही है, गुंजित कोकिल कूक।
कलरव कर संगीत सुनाएं, नहीं विहग भी मूक।
ब्रह्मानंद निमग्न योगिजन, स्तुतिरत प्रभु प्रीत।
उतर मौन में सुनो ध्यान से, जीवन है संगीत।
अलिगण गुंजन कमल प्रस्फुटन, कर नीरवता भंग।
प्राणिजगत में कोलाहल है, चढ़ा सभी पर रंग।
कर विस्मृत दुख द्वेष ईर्ष्या, मानव तू भी नाच।
यह जीवन अनमोल न दुख की, लगे कही भी आँच।
संकल्पित कर्तव्यशील जन, सदा मनाए जीत।
उतर मौन में सुनो ध्यान से जीवन है संगीत।
डॉ राजकुमारी वर्मा

Sunday, 23 March 2025

"प्रेम का तुम हो समुच्चय" - एक गीत

 

प्रेम का तुम हो समुच्चय प्रेम का प्रतिमान हो।
प्रेम बन कर बह रही जो सृष्टि का अवदान हो।

कर सके कैसे कलम नारी तुम्हारा आकलन।
माँ बहन बेटी सखी को लेखनी करती नमन।
वेद दृष्टा हो स्वयं ही तुम ऋचा का गान हो।
प्रेम बन कर बह रही जो सृष्टि का अवदान हो।

तुम कहीं हो उर्मिला सी और वैदेही कहीं।
हो अगम वन या महल तुम शक्ति बन पति की रहीं।
कर दिया यम को पराजित तुम वही पहचान हो।
प्रेम बन कर बह रही जो सृष्टि का अवदान हो।

देश पर जब आँच आई छोड़ आई आँगना।
हाथ में ले खड्ग लक्ष्मीबाई' सी वीरांगना।
शीश काटे शत्रुओं के देश की तुम शान हो।
प्रेम बन कर बह रही जो सृष्टि का अवदान हो।

रच रही नूतन कहानी हो रहा जय घोष है।
भर रही निज साधना से शक्ति का शुचि कोष है।
व्योम जल थल के स्वयं ही चढ़ चली सोपान हो।
प्रेम बन कर बह रही जो सृष्टि का अवदान हो।

*** सीमा गुप्ता 'असीम'

Sunday, 16 March 2025

खेले सब मिल होली - होली गीत

 

छन्न पकैया छन्न पकैया, यह रसियों की टोली।
रंग अबीर गुलाल लगाते, खेले सब मिल होली।।

देवर भाभी खेले होली, भर पिचकारी डारे।
भीगे कपड़े तन-मन भीगे, लगे बहुत ही प्यारे।।
नीर-झील से गहरे इतने, मुखड़ें लगे नशीले,
हुरियारों की टोली जैसे, लगते सब हमजोली।
रंग अबीर गुलाल लगाते, खेले सब मिल होली।।

बरसाने की होली सबसे, लगे बहुत ही प्यारी।
लट्ठ-मार होली की देखो, महिमा सबसे न्यारी।।
लोक-गीत गा खूब रिझाते, ऐसी धूम मचाते,
भाव-विभोर किया गीतों ने, लगती मोहक़ बोली।
रंग अबीर गुलाल लगाते, खेले सब मिल होली।।

भेद-भाव को भूले सारे, सबको गले लगाते।
सरोबार तन-मन हो जाता, मिलकर सब हर्षाते।।
खुशी जताते फाग खेलते, कुछ पीकर ठंडाई,
जन-जन के इस प्रेम-पर्व में, करते हँसी ठिठोली।
रंग अबीर गुलाल लगाते, खेले सब मिल होली।।

*** लक्ष्मण लड़ीवाला 'रामानुज'

Sunday, 9 March 2025

पञ्चचामर छंद

 

न उम्र की ढलान हो न जोश में अपूर्णता।
न हौंसला डिगे कभी न हो कभी अधीनता।
बलिष्ठ रोगहीन हो विचार में प्रगाढ़ता।
निकृष्ट स्फूर्तिहीन आज त्याग दें दरिद्रता।।

सुहावने विहान को सदा निहारते चलो।
न पाँव ये थमें वसुंधरा बुहारते चलो।
क़ुसूर भूल-चूक जो सभी सुधारते चलो।
पुनः मिले न जिंदगी अभी सँवारते चलो।।

न भिन्नता न खिन्नता विषाद का विनाश हो।
नवीनता प्रफ़ुल्लता प्रसन्नता प्रकाश हो।
प्रवास आस प्यास हो सदा नई तलाश हो।
बिना प्रयास के जिए सुनो सजीव लाश हो।।

सूरजपाल सिंह
कुरुक्षेत्र।

Sunday, 2 March 2025

विनती सुनो हमारी - एक भक्ति गीत

 

हे शिव शंकर औघड़दानी, विनती सुनो हमारी।

उग्र महेश्वर हे परमेश्वर, शिव शितिकंठ अनंता।
हे सुरसूदन हरि कामारी, महिमा वेद भनंता।।
रुद्र दिगंबर हे त्रिपुरांतक, प्रभु कैलाश बिहारी।
हे शिव शंकर औघड़दानी, विनती सुनो हमारी।।

अष्टमूर्ति कवची शशि शेखर, देव सोमप्रिय नाथा।
गंगाधर अनंत खटवांगी, चरण धरूँ निज माथा।।
अनघ भर्ग सर्वज्ञ अनीश्वर, विश्वेश्वर रहा निहारी।
हे शिव शंकर औघड़दानी, विनती सुनो हमारी।।

सोम त्रिलोकेश्वर सुरसूदन, पाश विमोचन देवा।
भीम अंबिकानाथ कृपानिधि, नित्य करूँ मैं सेवा।।
शोक हरो प्रभु सकल विश्व के, सारा जगत दुखारी।
हे शिव शंकर औघड़ दानी, विनती सुनो हमारी।।

चंद्र पाल सिंह 'चंद्र'

Sunday, 23 February 2025

शुभ-शुभ - एक गीत

 

शुभ-शुभ शीत ग्रीष्म बरसात।
शुभ-शुभ प्रातः दिन अरु रात।

तेरा शुभ हो मेरा शुभ हो।
नहीं किसी का कभी अशुभ हो।
वैमनस्य कटुभाव रहे ना,
कहो वही जो रहे अचुभ हो।
शुभ-शुभ निकले मुख से बात।
शुभ-शुभ प्रातः दिन अरु रात।

रहे कामना सदा सुमंगल।
बोल कभी ना रहें अनर्गल।
मान प्रभू की इच्छा सुख-दुख,
मिले सुधारस या मिले गरल।
स्वस्थ मांनस हो पावन गात।
शुभ-शुभ प्रातः दिन अरु रात।

सुन्दर शुभकारी रहे सृष्टि।
रहे अपनी सकार की दृष्टि।
अधर मधुर मुस्कान सहेजें,
अमृत सी होती रहे वृष्टि।
शुभ-शुभ वृक्ष सुमन अरु पात।
शुभ-शुभ प्रातः दिन अरु रात।

डॉ. राजकुमारी वर्मा

Sunday, 16 February 2025

भरोसा

 

विश्वास देकर
बिठाया था कंधे पर
अंतरिक्ष की अंगुली पकड़ाकर
दिखाया था धरती पर फैलता
विकास का उजाला,
पुचकार कर
खाली हथेलियों में भर दी थी गर्माहट
रच दिया था चलचित्र का भ्रम,
और मैं
अज्ञात भाषा के शोर में गुम
फावड़ा उठाकर ढहाता चला गया
गिरि- गोलोक, कन्दरा- मन्दिर,
उदधि- उद्भव, नक्षत्रों का छत्र, अतल का तल,
मनोयोग से खोद दी थी
ऋतुओं की गंध, फुहारों की लय,
कुनकुनी धूप, सरकती छांव,
मिटा दिए प्रकृति के सब आदिम पदचिन्ह,
अचानक नथुनों में भर गया धुआँ
बरसने लगे अंगारे,
छा गया अंधेरा
और अब मैं
विश्वास के साथ
अकेला खड़ा हूँ हाशिये पर,
भरोसा उठाने के लिए!
~~~~~~~~~~~
डॉ.मदन मोहन शर्मा
सवाई माधोपुर, राज.

Sunday, 9 February 2025

ज्ञान की नित नव प्रभा से - एक गीत

 

माँ ! तिमिर हर लो हृदय का ज्ञान का उद्भास भर दो।
ज्ञान की नित नव प्रभा से मम हृदय परिपूर्ण कर दो।

कर ध्वनित माँ ब्रह्म लहरी शेष 'मैं' का रह न जाए।
हो अकेला भाव सागर भव व्यथा कुछ रह न पाए।
श्वेत पद्मासन विराजित शारदे तुझको पुकारूँ।
छोड़ कर सारे सितासित यह हृदय तव गीत गाए।
गूँजते हों स्वर प्रणव के ओम् की माँ तृप्ति भर दो।
ज्ञान की नित नव प्रभा से मम हृदय परिपूर्ण कर दो।

भावना के सिन्धु से ये मन सहेजे भाव मोती।
ऊर्मियों की चाँदनी से जो समेटे दिव्य ज्योती।
प्रेम का विस्तार कर दे क्या करेगा अब सघन तम,
आपका ही प्यार पाकर मैं नए सपने सँजोती।
रह न जाए तम भरा कोई किनारा मातु वर दो।
ज्ञान की नित नव प्रभा से मम हृदय परिपूर्ण कर दो।

हो गई है भू बसन्ती मातु तेरी अर्चना में।
झर रही हैं स्वर्ण वर्णी रश्मियाँ तव वन्दना में।
फिर रहे क्यों तम हृदय में शारदे तू तार दे माँ,
भर गए हैं रंग अनगिन मातु स्वागत अल्पना में।
हो रहा है मन तरंगित कल्पना को नव्य स्वर दो।
ज्ञान की नित नव प्रभा से मम हृदय परिपूर्ण कर दो।

*** सीमा गुप्ता 'असीम'

Sunday, 2 February 2025

राजा ऐसा चाहिए जैसे राजा राम - एक गीत

 

राजा ऐसा चाहिए, जैसे राजा राम।
नाम भजो तब सुधरते, हर जन का हर काम।।
..........
राम राज्य की कल्पना, कैसे हो साकार।
कुटिल चाल चलते सभी, बिगड़ी है सरकार।।
दुष्टों के दुष्कर्म से, देश हुआ बदनाम।
राजा ऐसा चाहिए, जैसे राजा राम।।
..........
दुष्टों की भरमार है, देखो चारों ओर।
सब पर हावी हो रहे, खूब मचाते शोर।।
लगें ठिकाने दुष्ट ये, तब पाएँ विश्राम।
राजा ऐसा चाहिए, जैसे राजा राम।।
..........
दुष्टों का संहार कर, दिया दिव्य संदेश।
जो हम ऐसा कर सकें, सुधरेगा परिवेश।।
ऐसा करने के लिए, करना है संग्राम।
राजा ऐसा चाहिए, जैसे राजा राम।।
...........
युग बीते पर आज भी, गुण गाता संसार।
राम राज्य को मानिए, सतयुग का आधार।।
संकल्पित हों हम सभी, कृपा करें सुखधाम।
राजा ऐसा चाहिए, जैसे राजा राम।।

*** मुरारि पचलंगिया

Sunday, 26 January 2025

सकल सृष्टि - एक गीत

 

हे भुवनेश प्रकृति पति ईश्वर, जग उपवन के माली।
सुन्दर सुरभित उपादान ले, सकल सृष्टि रच डाली।

है अक्षुण्ण जो सृष्टि तुम्हारी, मरुत सदृश हैं गायक।
जहाँ मनुज का हस्तक्षेप न, वही प्रकृति सुखदायक।
रसवंती सरि धवल हिमालय, हवा चले मतवाली।
सुन्दर सुरभित उपादान ले, सकल सृष्टि रच डाली।

अमला धवला और नील सी, नदियों का इठलाना।
लहर-लहर आँचल लहराना, इत-उत आना जाना।
झर-झर झरें दूधिया निर्झर, मनमोहक हरियाली।
सुन्दर सुरभित उपादान ले,सकल सृष्टि रच डाली।

हे मानव उपवन निसर्ग से, अगणित खुशियाँ भरता।
वन्य जीव का यही सुखालय, पंक्षी कलरव करता।
सुनो कर्ण में घोल रही मधु, कोकिल कूक निराली।
सुन्दर सुरभित उपादान ले, सकल सृष्टि रच डाली।

*** डॉ. राजकुमारी वर्मा

Sunday, 19 January 2025

धर्म पर दोहा सप्तक

 

धर्म बताता जीव को, पाप-पुण्य का भेद।
कैसे जीना चाहिए, हमें सिखाते वेद।।

दया धर्म का मूल है, यही सत्य अभिलेख।
करे अनुसरण जीव जो, बदले जीवन रेख।।

सदकर्मों से है भरा, हर मजहब का ज्ञान।
चलता जो इस राह पर, वो पाता पहचान।।

पंथ हमें संसार में, सिखलाते यह मर्म
जीवन में इन्सानियत, सबसे उत्तम कर्म।।

चलते जो संसार में, सदा धर्म की राह।
नहीं निकलती कष्ट में, उनके मुख से आह।।

धर्म - कर्म से जो भरे, अपनी गागर नित्य।
उसके पुण्यों का नहीं, ढलता फिर आदित्य।।

मजहब तो इंसान का, प्रेम सुधा आनन्द।
लगा दिए संसार ने, नफरत के पैबंद।।

*** सुशील सरना

Sunday, 12 January 2025

आगत का है स्वागत करना - एक गीत

आगत का है स्वागत करना, संस्कृति का आधार लिए।
मंत्र सिद्ध अनुशासित जीवन, नेकी सद आचार लिए।

घटती-बढ़ती नित्य पिपासा,
पथ की बाधा बने नहीं।
अधरों की चाहत रखने में,
हाथ झूठ से सने नहीं।

सत्यमेव जयते हो प्रतिपल, नैतिकता का सार लिए।
आगत का है स्वागत करना, संस्कृति का आधार लिए।

भूले बिसरे गीत सुनाती,
प्यार भरी जग की बातें।
हँसते-रोते हमने खोया,
अनगिन साँसें दिन रातें।

अवशेष सजाना होगा हमको, स्नेह जगत व्यवहार लिए।
आगत का है स्वागत करना, संस्कृति का आधार लिए।

पूरब की लाली से सुंदर,
वर्ष ईसवी सदी गयी
नूतन अनगढ़ भाव व्यंजना,
सुबह हमारी साँझ नयी।

"लता" पुनः नव पत्र संँवारे, हरित प्रभा शृंगार लिए।
आगत का है स्वागत करना, संस्कृति का आधार लिए।

*** डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी

Sunday, 5 January 2025

नव द्वार खोल आए - गीत

 

नव वर्ष आगमन पर नव द्वार खोल आए।
नव भोर की प्रभा में नव राग घोल आए।

निज सोच शुद्ध हो ले कुछ ज्ञान बुद्ध कर लें।
बाटें क्षमा सहज मन निज क्रोध रुद्ध कर लें।
प्रणयी प्रपन्न श्वासें मझधार में बहें जब।
सित भाव तरण तरिणी किंजल सजें रहें तब।
गठरी विकार की हम कर होम डोल आए।
नव वर्ष आगमन पर नव द्वार खोल आए।

अवसाद में घिरी थी जो बात रात थी तम।
आ अक्ष में तिरी वो लहरें विषाद की नम।
मंजरि सनी पवन लय आरुषि बुहार लाई।
महका निलय निरामय शुभ्राभ धार आई।
हम पोटली खुशी की बिन मोल तोल आए।
नव वर्ष आगमन पर नव द्वार खोल आए।

उन्माद में अकारण लंका स्वयं स्व जारी।
हो सत्य से पराभव हैं दर्प अश्व भारी।
संवाद में अमिय रस पुष्पांजली लड़ी हो।
बेड़ी न पाँव में हों न बंध हथकड़ी हो।
मन मुद फिरे वलय में सुख सार बोल आए।
नव वर्ष आगमन पर नव द्वार खोल आए॥

*** सुधा अहलुवालिया

प्रपन्न-शरणागत / किंजल-किनारा / होम-भस्म / निलय-आकाश / निरामय-निष्कलंक / पराभव-हारा हुआ / वलय-शून्य

छोड़ कर जाना नहीं प्रिय - एक गीत

  छोड़ कर जाना नहीं प्रिय साथ मेरे वास कर लो। पूर्ण होती जा रही मन कामना तनु प्यास भर लो। मैं धरा अंबर तुम्ही हो लाज मेरी ढाँप लेना। मैं रहूँ...