लोक रीति अति सुन्दर संगम, वर-वधु ब्याह विधान।
धर्म-धरा-धृत नर-पुंगव कर, पावन कन्या दान।
माँग सजा सिंदूरी सजनी, अनगढ़ ये संकेत।
भेज ससुर घर राजदुलारी, भीगे नैन अगाध,
रही स्वकीया सतत सनातन, धर्म धरा की आन
पावन कन्या दान।
सुता परायी रही जनम से, थाती जो अनमोल।
मिला न अधिकृत मान जगत में, चिंतन करिए तोल।
सृष्टि सुगम की रचना महती, राजा हो या रंक,
परिणय बंधन दो कुल जोड़े, इक दूजे का मान।
पावन कन्या दान।
बढ़ी निराशा हृदय निरंकुश, कर्म न विधि अनुकूल।
खुद को क्षमा नहीं करता मन, सप्तपदी को भूल।
बंध्या करना माँ का आँचल, ऐसी मति पर खेद,
नर से नर औ नारी तत्पर, खोकर निज पहचान।
पावन कन्या दान।
लोक रीति अति सुन्दर संगम, वर-वधु ब्याह विधान।
धर्म-धरा-धृत नर-पुंगव कर, पावन कन्या दान।
*** डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी
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