खुशी हृदय का भाव है, रहती सब के पास।
नहीं मिले बाजार में, क्रय का व्यर्थ प्रयास।।
प्रेम पूर्ण व्यवहार है, खुशियों का आधार।
स्वार्थ हीन सत्कर्म से, लेती हैं आकार।।
धन वैभव सम्मान में, व्यर्थ खुशी की खोज।
पीर परायी जो हरे, उसको मिलती रोज।।
नहीं किसी को कष्ट दें, सुख का करें प्रबंध।
मानव मन की तृप्ति से, खुशियों का अनुबंध।।
खुशी/शोक नित बाॅंटता, जो कुछ जिसके पास।
सुरभि विखरती पुष्प की, जैसे बिना प्रयास।।
*** चंद्र पाल सिंह "चंद्र"
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