है चरम पर ताप तपती ग्रीष्म ऋतु झुलसा रही है।
खग विहग संसृति तृषित राका अनल बरसा रही है।
आँधियों का है बवंडर बूँद का रिमझिम छलकना।
श्वास औ प्रति श्वास बाधित स्वेद कण कण का ढलकना।
बावरी पुरवाइ विरहिन का मनस तरसा रही है।
खग विहग संसृति तृषित राका अनल बरसा रही है।
ताल पोखर बावली सलिला विरह में नागरी सी।
शांत लहरें नीर उथला रिक्त जीवन गागरी सी।
शुष्क जीवन सिलवटें चुप वीशिका दरसा रही है।
खग विहग संसृति तृषित राका अनल बरसा रही है।
शान्त हलचल मौन कलरव नीड़ में है दुबक बैठा।
सूर्यरथ है अग्नि रोपे व्योम पर आछन्न ऐंठा।
पात झरते नग्न डाली कोकिला सरसा रही है।
खग विहग संसृति तृषित राका अनल बरसा रही है।
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*** सुधा अहलुवालिया
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