हो जहाँ भय कर्म बस कर्तव्य होता है।
नेह में सम्मान प्रतिपल भव्य होता है।
है जहाँ श्रद्धा स्वयं ही शीश झुक जाता।
दर्प का तम हो जहाँ पग बुद्ध रुक जाता।
वाद औ प्रतिवाद में मन हव्य होता है।
नेह में सम्मान प्रतिपल भव्य होता है।
दीनता पर आँख भर आए करुण रस में।
अश्रु गंगा बह चले मन हो नहीं बस में।
भाव में शुचि मान संचित नव्य होता है।
नेह में सम्मान प्रतिपल भव्य होता है।
आचमन हो ज्ञान का मन पुष्प हो अर्पण।
दें स्वयं को मान हम देखा करें दर्पण।
भक्ति में सत्संग मंजुल स्रव्य होता है।
नेह में सम्मान प्रतिपल भव्य होता है।
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सुधा अहलुवालिया
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