Sunday, 28 November 2021

 



नीर भरन को आ गईं, रहट चलत लखि कूप।
मनहर वेला प्रात की, भीनी - भीनी धूप।।

एक धरे घट शीश पर, दूजी कटि पर लीन्ह।
घट कटि रखने के लिए, बदन त्रिभंगी कीन्ह।।

याद पिया की आ गई, भूल गई घट नीर।
उँगली ठोड़ी पर रखे, लगती बड़ी अधीर।।

कल क्यों तुम आई नहीं, दिखती आज उदास।
डूब गई किस सोच में, भूल गई परिहास।।

दिल का दर्द उड़ेल दो, बैठो मेरे पास।
क्या बतलाऊँ आपसे, रोज डाँटती सास।।

*** चंद्र पाल सिंह "चंद्र"

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