वेदनायें जी उठी यह क्रूरता का आचरण क्यों।
दर्प मद में लिप्त मानस स्वार्थ घट का आभरण क्यों।
चीखते से मौन चीवर शुष्क आँखें शून्य ताकें।
दो निवालों के लिए दिन रैन श्रम के बिन्दु टाँकें।
मृत हुई संवेदनायें चेतना का आहरण क्यों।
दर्प मद में लिप्त मानस स्वार्थ घट का आभरण क्यों।
है कहीं ऊँचा शिवाला ढूँढता कोई निवाला।
वणिक पण को हैं छुपाए पत्र पर पसरा दिवाला।
शृंग छल बल का समेटे दीनता का आवरण क्यों।
दर्प मद में लिप्त मानस स्वार्थ घट का आभरण क्यों।
दंभ में आक्षेप करते दूसरों का मान हरते।
हीनता का बीज बो कर जो मनुज निज स्वार्थ भरते।
असत् का भंडार संचित रात दिन का जागरण क्यों।
दर्प मद में लिप्त मानस स्वार्थ घट का आभरण क्यों।
*** सुधा अहलूवालिया ***
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