गहन निशा में स्निग्ध चाँदनी, नभ से सागर में उतरी,
श्वेत-वसन में मुग्ध अप्सरा, अंचल लहराती लहरी।
शान्त प्रशान्त नील जल शीतल, चंचल अंशु निरख बिखरी,
स्नेह-सिन्धु के हिय में निर्भय, अठखेली करती निखरी।।
निर्मल रत्नाकर का दर्पण, मन मयंक के भाया है,
आज निरख छवि उसमें चंदा, खुले हृदय मुस्काया है।
दीपित मुख की सुन्दरता से, वारिधि भी आभासित है,
अम्बर-अवनि और उदधि संग, मंदाकिनी उल्लासित है।।
आज चाँदनी पिघल रही है, देख चाँद की सुन्दरता,
हिय को चंचल बना रही है, भू-अम्बर की नीरवता।
प्रेम-पयोधि तरंगित उर में, विकल हृदय रत्नाकर है,
नभ में मंडित शरद चंद्रमा, सोलह कला कलाधर है।।
कुन्तल श्रीवास्तव
डोंबिवली, महाराष्ट्र
No comments:
Post a Comment