वह बही जा रही थी
यात्रा के अवशेष ढोती
रास्ता अवरुद्ध
पाँव घिसटते हुए
आखिरकार
थककर रुक गई
गंतव्य दूर था
वह सारा बोझ
जो सदियों से
ढोतीं आई है
उसका मार्ग रोके थे
सभी विकल्प समाप्त
पर गति उसका
जीवन था
बहना उसका कर्म
एक नन्ही सी धारा ने
अपना मार्ग खोज लिया
एक नया उद्गम बन
मुक्त हो
बह निकली
अक्सर जो लगता
है अंत
होता है
एक नई राह
नव विकल्प का
शुभ आरंभ..!
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*** सरस दरबारी ***
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