छोड़ न पाऊँ मोह गठरिया,
तीरथ करूँ हज़ार।
रास न आये बोझिल बंधन,
व्यर्थ लगे शृंगार।
मन से मन का मेल न प्रीतम,
नहीं चातकी प्यास।
अगन लगाती चंद्र कौमुदी,
साँझ करे उपहास।
तुम्ही बताओ भगवन मेरे, भटक रही दिन रात।
कहाँ मिलोगे राम हमारे, पलक बिछाये द्वार।
छोड़ न पाऊँ मोह गठरिया,
तीरथ करूँ हज़ार।
हंस नहीं मैं मानस स्वामी,
नीर न क्षीर विवेक।
मूढ़ मना तृष्णा में फँस के,
कुंदन बने न नेक।
तपा रही अर्पण में काया, नीति रीति के काज।
नेहिल नइया पार लगाकर, दे दो जीवन सार।
छोड़ न पाऊँ मोह गठरिया,
तीरथ करूँ हज़ार।
मन उपवन में तुम्हें बसा लूँ,
राग नहीं अनुराग।
अर्थ न स्वारथ चाहत अपनी,
चूनर लगे न दाग।
प्रेम रंग में रच बस जाऊँ, और नहीं अवदान।
तृषित नयन को दे दो दर्शन, जाऊँ मैं बलिहार।
छोड़ न पाऊँ मोह गठरिया,
तीरथ करूँ हज़ार।
रास न आये बोझिल बंधन,
व्यर्थ लगे शृंगार।
*** डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी ***
No comments:
Post a Comment