Sunday, 26 July 2020

जल-प्रलय




न आकाश की समझ
न धरा की,
अक्सर नहीं दिखाई देता
किनारा कोई।
हर साल, बार-बार,
जिन्दगी यूँ भी तिरती है,
कहां समझ पाता है कोई। 

सुना है दुनिया बहुत बड़ी है,
देखते हैं, पानी पर रेंगती
हमारी इस दुनिया को,
 कहाँ मिल पाता है किनारा कोई।

सुना है,
आकाश से निहारते हैं हमें,
अट्टालिकाओं से जाँचते हैं
इस जल- प्रलय को।
जब पानी उतर जाता है
तब बताता है कोई।

विमानों में उड़ते
देख लेते हैं गहराई तक
कितने डूबे, कितने तिर रहे,
फिर वहीं से घोषणाएँ करते हैं
नहीं मरेगा
भूखा या डूबकर कोई।

पानी में रहकर
तरसते हैं दो घूँट पानी के लिए,
कब तक
हमारा तमाशा बनाएगा हर कोई।

अब न दिखाना किसी घर का सपना,
न फेंकना आकाश से
रोटियों के टुकड़े,
जी रहे हैं, अपने हाल में
आप ही जी लेंगे हम
न दिखाना अब
दया हम पर आप में से कोई।

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कविता सूद, हिमाचल प्रदेश

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