जो भला था कर ही डाला काम का सोचा नहीं
ज़िन्दगी में फिर किसी परिणाम का सोचा नहीं
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तय नतीजे पर पहुँचने का इरादा कर लिया
और छेड़ी जंग तो आराम का सोचा नहीं
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इस अकेली जान के थे सामने जब इम्तहां
बोलते दिल को सुना इहलाम का सोचा नहीं
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हर जगह तो तुम ही तुम थे और मैं विस्मय भरा
ढूंढने किस ओर जाता धाम का सोचा नहीं
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कौन सी धुन पे टिके हो दर्द इतना झेल कर
छेड़ती है मय मुझे इक ज़ाम का सोचा नहीं
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दायरे फैले हुए हैं सब सवालों के यहाँ
हल तलाशे और हर आयाम का सोचा नहीं
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खो के उसमें सुख मिला है वो मेरी पहचान अब
वो मुझे जैसे पुकारे नाम का सोचा नहीं
*** मदन प्रकाश ***
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