Sunday, 8 April 2018

मेरी चाहत



मुरझाये-से तप रेत में हैं चाहतों के गुल खिले
इस बार थोड़ी छांव लाना धूप से राहत मिले


ये ऊंट भी है पूछता अब करवटें लूँ किस तरफ
किन मंज़िलों तक यूँ चलेंगें उम्र ढोते काफिले 


ज्यों रोटियों सँग बांधकर दे दी तुम्हें गुड़ की डली
वैसी ही मीठी याद की इक पोटली मुझको मिले


छौने बड़े तुमको मिलेंगे लौटकर तुम देखना
मेरा समय थमकर मगर अपनी जगह शायद हिले 


फिर बांसुरी की तान अपनी छोड़ जाओ द्वार पर
कानों में बस गूंजें तुम्हारी आहटों के सिलसिले


*** मदन प्रकाश ***

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