हुआ चमन से अलग नहीं है फिर कोई अपना घरबार।
पड़ा सड़क पर फूल सोचता लिखा भाग्य कैसा करतार।
कभी किसी बाला के सुन्दर कुंतल मध्य सुशोभित हो,
इठलाता अपने जीवन पर मन ही मन आनंदित हो,
सहलाती है जब सुंदरियाँ अपने होठ कपोलों पर,
धन्य धन्य हो जाता जीवन माला संग पिरोहित हो,
लेकिन दो पल में ही मानव, भरा हृदय दे फेंक उतार।
पड़ा सड़क पर फूल ........
गुलदस्ते में सजता हूँ पर वह मुस्कान कहाँ खिलती,
डाली पर सजकर बगिया में मेरे होठों पर मिलती,
तितली की आहट भँवरों का गुंजन गान कहाँ पाऊँ,
कैसे सम्भव बंद घरों में खुली हवा की वह मस्ती,
माली ही जब दुश्मन अपना जीतेजी देता है मार।
पड़ा सड़क पर फूल ........
कभी शहीदों के चरणों में जब जब भी चढ़ जाता हूँ,
संग कन्हैया राधा के जब मैं भी रास रचाता हूँ,
तब लगता है पैदा होकर कुछ तो कर्म सुकर्म किया,
जीवन सफल मान कुछ अपना थोड़ी राहत पाता हूँ,
ईश चरण में जगह न मिलती पूरा जीवन था बेकार।
पड़ा सड़क पर फूल ........
गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' बीकानेरी
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