अरे !
तुम तो चले गए थे न
मुझे छोड़कर,
मुक्त हो गए थे
सारे बंधन तोड़कर,
या शायद किसी और
परम प्रिय से
नाता अपना जोड़कर।
एक पल में धराशायी हो गए
सुनहरे सपनों के स्वर्ण महल,
हाँ, मैं लड़खड़ाई थी
पर गिरी नहीं थी,
मैंने संभाल लिया था खुद को,
बहला लिया इस दिल को,
फुसला लिया अपने आंसुओं को,
और सुला दिया
पलकों के नरम बिछौनों में।
पर यूँ चले जाना
शायद
तुम्हारी ख़ुदगरज़ी नहीं,
उसकी मर्ज़ी थी,
नियति का खेल ही था ज़रूर
जो तुम्हें भी न था मंजूर,
तभी तो रोज़ चले आते हो
एक मीठा सा एहसास बनकर
कभी कोई प्यारी सी आस बनकर
और कभी ख़ुद पे विश्वास बनकर
और रोज़ शोर मचाते हो
दिल की मुंडेर पर
याद का काग बनकर।
***** निशा
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