"मैं"
होता है सवार
सदैव ही दो नावों पर
और - समझता है श्रेष्ठ
"मैं" मैं को ही,
कर्म और भाग्य के आडम्बर
ओढ़ लेता है कभी
योग में भोग
कर लेता है सार्थक
गढ़ता है अपनी ही सूरत
अपने ही हाथ
स्थापित करता है अहं के स्मारक,
चाहता है अहं
ताजपोशी
रंगे सियार सरीखा
और बना रहता है सदैव केंचुआ
बरसाती मेंढक के साथ,
होकर सवार दो नाव पर
बेच देता है जीवन और आयु
सड़ांध के ढेर पर
मानवता के नाम
लिख देता है
एक अमिट ......... अभिशाप !
*** गोविंद हाँकला
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