Sunday, 19 October 2025

दीपोत्सव पर तोटक छंद (।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ)

 

दश आनन मार दिया रण में। सब गर्व मिला वसुधा कण में।

छवि राम बसी सबके उर में। विजयोत्सव दीप जले घर में।।


दस पाप हरे तन से मन से। सत धर्म जयी बरसा घन से।

वनवास समापन की घड़ियाँ। जननी बुन हार रही कलियाँ।।


रघुवीर पधार रहे पुर में। जयकार किया सबने सुर में।

नर - नार मनोरथ पूर रहे। नयनों ठहरा दुख भार बहे।।


गगरी जल की सिर पे धर के। पथ फूल बिखेर रहीं सर के।

जननी धरि धीर खड़ी मग में। दुख रोकर आज पड़ा पग में।।


सुख चौदह वर्ष बिता वन में। घर पाकर फूल रहा मन में।।

जननी सबका मुख चूम रही। कपि केवट भाग्य न जात कही।।


धर रूप अनूप खड़े सुर भी। लखि राम रहे गज कुक्कुर भी।

सरयू हरषी वसुधा सरसी। सुख से भर के अखियाँ बरसी।।


जय राम रमापति पाप हरो। भव प्रीति भरी मन दूर करो।

शरणागत के सिर हाथ धरो। मन में प्रभु भक्ति -विराग भरो।।

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डॉ. मदन मोहन शर्मा

सवाई माधोपुर, राज.


Sunday, 12 October 2025

पैसा ही वरदान जब - दोहे

 

पैसा ही वरदान जब, पैसा ही अभिशाप।
करे आप को तू यहाँ, तू को कर दे आप॥
शानोशौकत ऐश सब, दुःख-व्याधि-संताप।
पैसे से सब-कुछ मिले, पुण्य कमा लो पाप॥

सब-कुछ ही संभव यहाँ, कैसी भी हो माप।
जब इंसाँ का क़द बढ़े, बढ़े ज़मीं की नाप।।

जिसको देखो वह करे, निशि दिन एक विलाप।
ख़ूब मुझे पैसा मिले, समझो भले प्रलाप॥

कलियुग का जप तप यही, पैसों का है जाप।
पैसों से भाई-बहन, पैसों से माँ - बाप॥

*** रमेश उपाध्याय

Sunday, 5 October 2025

प्रभु वंदना

 

रिक्त मानस कोष्ठ में प्रभु को बिठा श्रृंगार कर लूँ।

प्रेम पावन अश्रु निर्मल धार मंजुल स्नान वर लूँ।


मौन वाणी वर्ण लिखती स्वर्ण से नम ओस कण में।

शून्य आँखों नें जनें जो बिन्दु, मोती हार क्षण में।

ज्योति की निर्मल प्रभा में साँवरी छवि को निहारूँ।

पलक दल को बन्द कर चुपचाप अंतस को बुहारूँ।

चेतना विह्वल विरस मन नेह संचित ध्यान स्वर लूँ।


आज हो संवाद प्रभु से पत्र लिखतीं कामनाएँ।

दीप्त घट-घट ज्योति उसकी पढ़ रहा सब याचनाएँ।

नित्य भरता झोलियाँ अनमिष करुण रस छलकता है।

क्यों विरस मन मौन हो संवेदना में दरकता है।

पात्रता देता वही है पात्र का संज्ञान धर लूँ।


मैं सभा में थी अकेली आहटों को टोहती थी।

आ गया है द्वार कोई बिन सुने ही मोहती थी।

भक्त मन का शुभ्र आँचल स्वच्छ पावन शून्य दर्पण।

लालसा बस प्रेम की है मन हुआ है आज अर्पण।

नाव है भवसिन्धु में माँझी लगाता पार, तर लूँ।

रिक्त मानस कोष्ठ में प्रभु को बिठा श्रृंगार कर लूँ।


*** सुधा अहलुवालिया


Sunday, 28 September 2025

माता का उद्घोष - एक गीत

 

आ गयी नवरात्रि लेकर, भक्ति का भंडार री।
कर रही मानव हृदय में, शक्ति का संचार री॥

है प्रवाहित भक्ति गङ्गा, शिव-शिवा उद्घोष से,
आज गुंजित गगन है यह , विजय के जयघोष से,
सकल आनन हैं प्रफुल्लित,अमित हिय परितोष से,
स्वागतम् नवरात्रि का है, अमिय मृद मधुकोष से,
ढोल और मृदङ्ग रव से, गूँजते कान्तार री।
कर रही मानव हृदय में, शक्ति का संचार री॥1॥

हास्य रस शृंगार पूरित, करुण रस है मातृ में,
वीर रौद्र विभत्स अद्भुत, शांत रस जगधातृ में,
शत्रु संहारक भयानक, आकृति कालरात्रि में,
नवरसों का हृदय में हो, संचरण नवरात्रि में,
दानव दलन की कथा में, रूप हर साकार री।
कर रही मानव हृदय में, शक्ति का संचार री॥2॥

शरद की नवरात्रि अनुपम, प्रकृति से शोभन सजी,
द्रुम लताओं से लदे तरु, शाख पुष्पों से गजी,
आज माँ घर आ रही हैं, व्याप्त नव उल्लास है,
नाचते तन गा रहे मन, नेत्र में नव आस है,
दीप तारों के जला कर, कौमुदी तैयार री।
कर रही मानव हृदय में, शक्ति का संचार री॥3॥

*** कुन्तल श्रीवास्तव

Sunday, 21 September 2025

मौत की बारात निकली, ज़िंदगी हैरान है।

 

मौत की बारात निकली,
ज़िंदगी हैरान है।
घोंसला फिर से किसी का,
बन गया शमशान है।।

उड़ नहीं पाए पखेरू,
पंख उनके जल गए।
उरगारि समझे थे जिसे,
श्येन सारे छल गए।।

आपदा का बाम लेकर,
आ गया शैतान है।

पूछते हैं हाल लेकिन,
बोलने पर वर्जना।
कौन सुनता है यहाँ पर,
मौन की यह गर्जना।।

दर्द का छाया कुहासा,
मन-गली सुनसान है।

फिर से किसी धृतराष्ट्र की,
मर गई संवेदना।
नेपथ्य से वह ध्वंश की,
भर रहा उत्तेजना।।

लुट रहा संसार मेरा,
सो रहा दरबान है।
मौत की बारात निकली,
ज़िंदगी हैरान है।।
चंद्र पाल सिंह 'चंद्र'

Sunday, 14 September 2025

रजत चंद्रिका - एक गीत

 

तिमिर तिरोहित करके जग का, तमस मानसिक हरता।
रजत चंद्रिका में अवगाहन, पूर्ण चंद्रमा करता।

किरण हिमानी औषधि के सम, तन की पीड़ा हरती।
जलधि और उर करे प्रफुल्लित, चन्द्र चंद्रिका झरती।
शिशुओं का मातुल क्रीडक बन, रूप मनोहर धरता।
रजत चंद्रिका में अवगाहन, पूर्ण चंद्रमा करता।

सर्व धर्म सम भाव मानता, तुझे पर्व सब प्यारे।
ईद चौथ करवा की हो या, व्रती मनुज उद्धारे।
तुझे देखकर निराहार जन, विहँस उदर को भरता।
रजत चंद्रिका में अवगाहन, पूर्ण चंद्रमा करता।

अविभाजित ब्रह्माण्ड सकल में, दिनकर निशिकर तारे।
सबका ही पूरा महत्व है, नहीं जगत से न्यारे।
पोषित करते रहें धरा को, बहुविधि अमृत झरता।
रजत चंद्रिका में अवगाहन, पूर्ण चंद्रमा करता।

*** डॉ. राजकुमारी वर्मा

Sunday, 7 September 2025

मेरे मीत - एक गीत

 

अजनबी! कुछ तो रहा है आपसे सम्बन्ध मेरा।
बस रहे जन्मान्तरों से आप हिय में मीत बनकर।

रात्रि गहराती निखरती चाँदनी जब जब धरा पर।
छेड़ती है भारती संगीत वीणा हाथ में धर।
उस अयाचित प्रेम निर्झर में बरसते गीत बनकर।
बस रहे जन्मान्तरों से आप हिय में मीत बनकर।

हंस बनकर हो विचरते इस हृदय के मानसर में।
ढूँढती हूँ आपकी छवि झिलमिली लघुतम लहर में।
वेदना की हर कसक में आप आए प्रीत बनकर।
बस रहे जन्मान्तरों से आप हिय में मीत बनकर।

बन्द नयनों में बसे हो आप ही आराध्य मेरे।
रंग भर जाते मिलन के ओ परम शाश्वत चितेरे।
अजनबी! कुछ तो बता दो हँस रहे क्यों जीत बनकर।
बस रहे जन्मान्तरों से आप हिय में मीत बनकर।

*** सीमा गुप्ता "असीम"

दीपोत्सव पर तोटक छंद (।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ)

  दश आनन मार दिया रण में। सब गर्व मिला वसुधा कण में। छवि राम बसी सबके उर में। विजयोत्सव दीप जले घर में।। दस पाप हरे तन से मन से। सत धर्म...