शून्य चेतना अंध चाह में, दौड़ मचाती भागमभाग।
सूझ-बूझ से करें न साझा, अपनी डफली अपना राग।
रहे पृथक जो अपने मद में,
मतभेदों का मिथक भरोसा,
बस दुनिया कायम हो जाय।
अंत अनंत विधान जगत का, व्यर्थ न हो संयम परित्याग।
सूझ-बूझ से करें न साझा, अपनी डफली अपना राग।
स्वार्थ विचारों और हितों में ,
रखते अपना ही आलाप।
नित्य अलग अफसाने जुड़ते,
द्वंद्व-फंद के करते जाप।
दर्द बनी जो वादी अपनी, खेल हुआ जो खूनी फाग।
सूझ-बूझ से करें न साझा, अपनी डफली अपना राग।
मर मिटने पर सभी उतारू,
नष्ट हुए या हुआ विकास।
रही तर्क संगत दुविधायें,
युद्ध-शांति का लगा कयास।
नीति धर्म परिवारी जीवन, सदा रहे जीवन बेदाग।
सूझ-बूझ से करें न साझा, अपनी डफली अपना राग।
*** डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी
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