गिरे गगन से बिजली पग-पग, कहीं फट रहे काले मेघ।
हरे-भरे गिर वृक्ष अचानक, रहे हृदय धरती का वेध॥
बाँधों की टूटी दीवारें, जलप्रलय करता हुंकार।
हहर-हहर नदियाँ नद-नाले, विकट कर रहे हैं संहार॥
कहीं धसकते शैल-शिखर हैं, कहीं डूबते कूल-कछार...

काट-काट पर्वत-वृक्षों को, किया प्रकृति से ख़ुद को दूर।
मचा रही विध्वंस नदी अब, अब तो हुई प्रकृति भी क्रूर॥
सैलाबों ने निगली बस्ती, मचा चतुर्दिक् हाहाकार।
आया खण्ड-प्रलय पृथ्वी पर, दिल दहलाने अबकी बार॥
कहीं धसकते शैल-शिखर हैं, कहीं डूबते कूल-कछार...

डूब गये घर-आँगन बस्ती, डूबे सभी खेत-खलिहान।
जीवनदायिनी सरि हर रही, आज बाढ़ से सबके प्रान॥
शस्य श्यामला रुदन कर रही, खो कर वैभव का संसार।
कहाँ गये सावन के झूले, कहाँ हुई गुम मृदु बौछार॥
कहीं धसकते शैल-शिखर हैं, कहीं डूबते कूल-कछार...

*** कुन्तल श्रीवास्तव
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